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परिणामों से ही बच्ध और मुक्ति प्राप्त होती है ।
(१) रूपस्थ, (२) पदस्थ, (३) पिंडस्थ, (४) रूपातीत इन चार ध्यानों के करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए ये ध्यान मेरे मन को ( चिदानन्द 1) अधिक रुचि कर हैं - ९२
रूपस्थ ध्यान
१ – अपने स्वरूप को विकार रहित जानकर आत्म ध्यान में लीन होकर जब कोई अपनी आत्मा के निज गुरण को अंश रूप से प्राप्त करता है तो उस समय वह ध्यान के प्रथम भेद रूपस्थ को प्राप्त करता
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पदस्थ ध्यान
( चौपाई ) तीर्थंकर पदवी परधान । गुण अनन्त नो जागो थान || गुण विचार निज गुण 'जे लहे । ध्यान पदस्थ सुगुरु इम कहे ॥ ९४ ॥ अर्थ – सद्गुरु ऐसा कहते हैं कि तीर्थंकर पदवी जो सब पदवियों में प्रधान है और अनन्त गुणों का स्थान है ऐसे तीर्थंकर प्रभु के गुणों का ध्यान कर जो ध्याता उन गुणों को निज आत्मा में ग्रहण करता है उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं- ९४
पिंडस्थ ध्यान
( चौपाई ) भेद ज्ञान अन्तरगत धारे । स्व पर स्थिति भिन्न विचारे ॥ सकती विचारी शांतता पावे । ते पिंडस्थ ध्यान कहलावे ।। १५ ।। अर्थ - देह पिंड में स्थित आत्मा स्व (आत्मा) और पर (देह) की स्थिति का भिन्न विचार करते हुए इस भेद ज्ञान को अपने अन्तर्गत धारण कर अपने शुद्ध स्वरूप का विचार करते हुए शांति धारण करे । इसे पिंडस्थ ध्यान कहते हैं- ९५
रूपातीत ध्यान
( चौपाई ) रूप रेख जामे नवि कोई । अष्ट गुणां" करी शिव पद सोई ॥ ताकुं ध्यावत तिहां समावे । रूपातीत ध्यान सो पावे ।। ६६ ।
३१--सिद्धात्मा के आठ गुण - ( १ ) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त चारित्र, (४) अनन्त सुख, (५) प्रक्षय स्थिति, (६) अरूपी, (७) गुरुघु, (८) अव्याबाध स्थिति ।
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