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हिंसा और परिग्रह का त्याग ही सकदी प्रवाण्या है। अल्पाहार निद्रावश करे। हित स्नेह जग थी परिहरे ।। लोक लाज नवि करे लगार । एक प्रीत प्रभु थी चित्त धार ॥ ८२॥ आशा एक मोक्ष की होय । दूजी दुविधा नवि चित्त कोय ॥ . ध्यान योग्य जानो ते जीव । जो भव दुःख से डरत सदीव ।। ८३ ॥ पर निन्दा मुख थी नवि करे । स्व निन्दा सुनी समता धरे ॥ करे सहु विकथा२८ परिहार । रोके कर्म आगमन द्वार ॥ ८४ ॥ हरख शोक हिरदे नवि आवे । शत्रु मित्र बराबर जाने ॥
पर आशा तजी रहे निराश । तेथी होय ध्यान अभ्यास ।।.८५ ॥ अर्थ-मेघ वाली या मेघ बिना की रात अथवा मेघ वाले या मेघ बिना के दिन आदि के भेद अनुभव के विचार से उपाधि रहित एकान्त स्थान में
के भिन्न-भिन्न क्षयोपशम के कारण (न्यूनाधिकता के लिए) जुदा-जुदा प्रकार से विचित्र प्रकार की होती है । नीचे लिखे विवेचन से भली भांति
पढ़ने से इस दृष्टि की विचित्रता स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगा। CI) मेघाच्छन्न रात्रि में वस्तु का बहुत ही अस्पष्ट भास होता है । (२) इस
से कुछ अधिक मेघ बिना की रात्रि में दिखलाई देगा। (३) इमसे स्पष्ट मेघाच्छन्न दिन में दिखलाई देगा। (४) मेघ बिना के दिन में इससे भी बहत स्पष्ट दिखलाई देगा। (५) देखने वाला जो भूतादि ग्रह से अथवा चित्त विभ्रम आदि ग्रह से ग्रहित हो उससे देखने में (६) तथा ऐसे ग्रह
आदि रहित देखने वाले में स्पष्ट भेद पड़ता है । (७) देखने वाला बालक हो तो उसके देखने में। (८) तथा वयोवृद्ध व्यक्ति हो तो उसके देखने में भी विवेक में कम अधिक प्रमाण में अन्तर होता है। (8) आंख पर मोतिया उतर आने से परदा आ जाने के कारण देखने वाले से (१०) रोग रहित आंखों वाले के देखने में अवश्य अन्तर पड़ता है। इस प्रकार एक ही दृश्य में देखने की वस्तु में विचित्र उपाधि भेद के कारण भिन्न-भिन्न दृष्टि भेद ' होते हैं । इस दृष्टांतानुसार लौकिक पदार्थों को लौकिक दृष्टि से देखने के जो जो भेद हैं, वे-वे प्रोध दृष्टि के प्रकार हैं । राजकथा, देश कथा, स्त्री कथा, भोजन कथा-ये चार विकथाएं हैं।
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