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विवेक (apne) से ही धर्म के साधनों का निर्णय होता है।
ध्यान करना चाहिये । ध्यान के दो भेद हैं । (१) सालम्बन (२) निरालम्बैन । पहले सालम्बन ध्यान करना चाहिये और उसके बाद निरालम्बन ध्यान द्वारा ज्ञान को प्रकाश में लाया जाता है-७६ .
मित्रा, तारा, बला, दीप्ता, स्थिरा, कांता, प्रभा, परायोग को ये आठ दृष्टियां हैं-८०
अखेद तथा अन्यत्र अद्वेष होता है अर्थात् इस दृष्टि में यम आदि के पालन में अखेद तथा अन्य प्रसंगों पर अद्वेष नाम का प्रथम गुण प्राप्त होता है। इस दृष्टि का मुख्य लक्षण सकल जगत के प्रति मित्र भाव, निर्वैर बुद्धि होने से इसका मित्रा नाम ठीक घटित होता है। इस दृष्टि से जो दर्शन (सत् श्रद्धा) वाला बोध होता है वह मन्द स्वल्प शक्ति वाला
अग्नि समान होता है। २- तारा दृष्टि-इसमें मित्रा दृष्टि से दर्शन (सत् श्रद्धा बोध) थोड़ा स्पष्ट
होता है तथा वैसे प्रकार के नियम, हित प्रवृत्ति में अनुद्वेग तथा तत्त्व विषय सम्बन्धी जिज्ञासा होती है । अर्थात् योग का दूसरा अंग नियमों का पालन तथा दूसरे दोषों के त्याग रूप अनुद्वेग एवं एक दूसरे जिज्ञासा रूप
गुण की उत्पत्ति होती है। कंडे की अग्नि के समान है । ३-बला दृष्टि-दर्शन (सत् श्रद्धा बोध) काष्ट अग्नि समान, योग का तीसरा
अंग आसन, क्षेप नामक तीसरे आशय दोष का त्याग, शुश्रूषा नाम के तीसरे गुण की प्राप्ति होती है । इसमें सत् श्रद्धा प्रथम की दोनों दृष्टियों से अधिक बलवान दृढ़ होती है। तृण और कण्डे की अग्नि से अधिक
प्रकाश वाली, अधिक स्थिति वाली, अधिक शक्ति वाली होती है । ४-दीप्ता दृष्टि-योग का चौथा अंग प्राणायाम इस में होता है । उत्थान नामक
चौथे प्राशय दोष का त्याग होता है । श्रवण नाम चौथा गुण प्रकट होता है, परन्तु दर्शन तो अब भी सूक्ष्म बोध बिना का होता है, दीप के प्रकाश तुल्य । पहले की तीनों दृष्टियों से अधिक स्थिरता आदि वाली होती है । इसका बोध दीपक के प्रकाश तुल्य निकटवर्ती पदार्थों का ही विषय करने में कार्यकारी होता है सूक्ष्म विषयों का बोध नहीं करता।
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