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स्व-पर को शान्ति प्रदाता भाव तीर्थ कहलाता है। की सेवा करने लगते हैं। अनेक प्रकार की ऋद्धियां दिखलाते हैं तथा उनके अद्भुत रूप उसे दिखाई देने लगते हैं-७२ . .. __ ऐसी ऋद्धियों को देखकर जो योगी अपने चित्त को चलायमान नहीं करता वही योगी ज्ञान समाधि प्राप्त है। समाधि प्राप्त हो जाने पर वेद के भेद का वास्तविक अनुभव प्राप्त होता है । इसका लक्षण किसी परम योगीराज गुरु द्वारा जानकर उसके द्वारा बतलाये हुए विधि विधान से ही करना उचित है। क्योंकि योग विद्या के साधन के लिए इस विषय में निष्णात गुरु की परमावश्यकता हैं । गुरु के बिना अपने आप करने से लाभ के स्थान पर हानि होना सम्भव
शरीर में कुंडलिनी और बंकनाल का स्थान (चौपाई) नाभी पास है कुंडलिनी"। बंकनाल है तास पिछाड़ी।
दशम द्वार का मार्ग सोई। उलट वाट पावै नहीं कोई ।। ७४ ।। जैन शास्त्रों में समाधि को परा दृष्टि के नाम से कहा है, यथा__. समाधिनिष्टा तु परा तदासंग विवजिता । ..... सात्मीकृत प्रवृत्तिश्च तदुत्तीणीशयेति च ॥ .. अर्थ-पाठवीं परा दृष्टि समाधिनिष्ट तथा उसके आसंग दोष से विवर्जित होती है तथा सात्मीभूत प्रवृत्तिवाली एवं उससे उत्तीर्ण प्राशय वाली होती है। १६-कुंडलिनी क्या हैं ? इसका संक्षेप से यहां वर्णन करते हैं। इड़ा और
पिंगला दो नाड़ियों का वर्णन कर आये हैं। इन दो नाड़ियों के बीच में जिसका प्रवाह है वह है सुषुम्ना नाड़ी। इस सुषुम्ना नाड़ी के अन्तर्गत
और भी नाड़ियां हैं, जिनमें एक चित्रिणी नाम की नाड़ी है । इस चित्रिणी नाड़ी में से होकर कुंडलिनी शक्ति का रास्ता है। इसका स्थान नाभी के पास है । योग शास्त्र में जो अनेक गूढ़ विषय हैं उन में से भी कुंडलिनी शक्ति गूढ़तम विषय है । योग शास्त्र के प्रथम सोपान से अन्तिम सोपान तक चढ़ जाने के पश्चात् ही इस शक्ति का अनुभूत ज्ञान प्राप्त होता है । इस कुंडलिनी को जाग्रत करने से ही योग सिद्धि की प्राप्ति होती है। इस कुंडलिनी को जाग्रत करने की विधि योग विद्या के पारगामी से जान लेना ही उचित है। इसका स्वरूप परिशिष्ट में भी दिया है । वहां जान लेवें ।
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