________________
MINS
सच्चे ज्ञान के बिना ज्ञानी नहीं हो सकता। रमन की स्थिरता होती है और अशुभ संकल्पों का नाश होता है । सुरत की डोर को आकाश में लाकर त्रिवेणी में वास करावे, वहां पर • हुए अर्थात् श्वास के भीतर जाते समय जपना और पूरक पूरा हो जाने पर बहुत थोड़ी देर रुक जाना अर्थात् कुम्भक करना और फिर रेचक करते हुए अर्थात् श्वास को बाहर निकालते हुए मंत्र के दूसरे भाग का जप करना और रेचक पूरा हो जाने पर फिर बहुत थोड़ी देर रुक
जाना । यह भी अजपा जाप है। अहम् का भी अजपा जाप होता है। १७-लय योग के अंग तथा त्रिवेणी का स्वरूप :
यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म-क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, लयक्रिया और समाधि ये लय योग के आठ अंग हैं। सूक्ष्म क्रिया के साथस्वरोदय साधन का, प्रत्याहार के साथ-नादानुसन्धान क्रिया का, और धारणा के साथ-षट्चक्र भेदन क्रिया का सम्बन्ध है ।
पायु से दो अंगुल ऊपर और उपस्थ से दो अंगुल नीचे चतुरंगुल विस्तृत समस्त नाड़ियों का मूल स्वरूप पक्षी के अण्ड की तरह एक बंद विद्यमान है जिसमें से बहत्तर हजार नाड़ियां निकलकर सारे शरीर में व्याप्त हुई हैं । इनमें से योग शास्त्र में तीन नाड़ियां मुख्य कही हैं, इंगला, पिंगला और सुषुम्ना । चंद्ररूपिणी इंगला मेरुदंड के वाम भाग में, सूर्य रूपिणी पिंगला मेरुदण्ड के दक्षिण भाग में, और चन्द्रसूर्यादि रूपिणी त्रिगुणमयी सुषुम्ना मध्य भाग में विराजमान रहती है। मूल से उथित इड़ा (इंगला) और पिंगला मेरुदण्ड के वाम और दक्षिण भाग में समस्त पद्मों को वेष्टित करते हुए आज्ञाचक्र पर्यन्त धनुषाकार से जाकर भूमध्य के ऊपर ब्रह्मरन्ध्र के मुखं में संगता हो नासारन्ध्र में प्रवेश करती है । भूमध्य के ऊपर जहां पर इड़ा और पिंगला मिलती हैं वहां पर मेरुमध्य स्थित सुषुम्ना भी जा मिलती है। इसलिए यह स्थान त्रिवेणी कहलाता है क्योंकि शास्त्र में इन तीनों नाड़ियों को गंगा, यमुना,
सरस्वती कहा गया है। इस त्रिवेणी के योग बल से ही पातंजल योग - में मोक्ष माना है, परन्तु जैन दर्शन में इसे मोक्ष नहीं माना ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org