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चरित्र से शुद्ध हुआ थोड़ा सा भी ज्ञान महान् फलदायी होता है। इस प्राप्त नहीं हो सकती हैं-६८
अजपा जाप योग (दोहा) वरुण नाभी में संचरे, सोऽहं शब्द उद्योत ।
__ अजपा जाप ते जानिये, अनुभव भाव उद्योत ॥ ६६ ॥ नाभी थी हिये संचरे, तिहां रकार प्रकाश । मन थिरता तामे हुए, अशुभ संकल्प विनाश ॥ ७० ॥ सुरत डोर लावे गगन, तिरवेणी कर वास ।
तिहां अनहद धुनि उपजे, स्थिर ज्योति परकास ॥ ७१ ॥ अर्थ-श्वास लेते समय वायु नाभी में जाता है तब सोऽहं५ शब्द प्रगट होता है इसे अजपा-जाप कहते हैं इससे अनुभव भाव का प्रकाश होता है-६६
जब वायु नाभी से हृदय में संचार करती है तब 'र' कार शब्द प्रगट होता १५-पूरक करते समय 'सो' का उच्चारण करना (पूरक करते समय स्वा
भाविक ढंग से 'सो' शब्द का उच्चारण होता है) उसके बाद थोड़ा रुक जाना, फिर रेचक करते हुए 'अहम्' का उच्चारण करना (रेचक के समय श्वास निकलने से 'अहम्' शब्द का स्वाभाविक उच्चारण होता है) फिर थोड़ा रुक जाना । इसे अजपा-जाप कहते हैं । इसमें मन्त्र का उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है केवल श्वास के पूरक और रेचक की गति पर ध्यान देने की। जिससे स्वयं मालूम होगा कि “सोऽहं" मन्त्र का जाप स्वतः बिना उच्चारण किए ही हों, रहा है अर्थात् पूरक में 'सो' और रेचक में 'अहम' दोनों मिलाकर 'सोऽहं' का जप बिना जाप किए ही हो रहा है । यही अजपा-जाप योग है। इस जप से वृत्ति अन्तरात्मा पर रखनी चाहिए अर्थात् वही 'सो| (वह ईश्वर) और. वही 'अहम्' (साधक का जीवात्मा) है; दोनों मिलकर
"सोऽहं" हुआ है। इसमें पूरक और विशेषकर रेचक धीरे-धीरे करना - चाहिए। . १६-अजपा जाप-किसी मन्त्र के दो भाग करके एक भाग को पूरक कर
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