________________
निविझाल्पता ही सच्चा सुख है।
५–अव्यान :-जोड़ों में, चमड़ी के सब भागों में, आंख, कण्ठ, षष्टी; कमर तथा नाक में रहने वाला वायु अव्यान अथवा व्यान कहलाता है। प्राण, अपान को धारण करना, उनका कुम्भक (रोकना) करना, त्याग और ग्रहण (आगम) करना, योग में कहे हुए नौली वगैरह कर्म करना—ये सब इस वायु से होते हैं तथा व्यापक रूप से सारे शरीर में रुधिर आदि का संचार करने वाला तथा स्पर्शेन्द्रिय का सहायक है।
इन पांचों वायु के बीज क्रमश: पांच प्रकार के हैं जो कि निम्नलिखित
इन वायु को जय करने के लिए पूरक, कुंभक और रेचक करते समय प्राणादि वायु का ऐं आदि बीजों का ध्यान करना चाहिए ।
ऐं, पैं, रौं, ब्लौं, क्लौं ये पांच बीज प्रधान हैं और इनमें गभित भेदों की गिनती करना अशक्य हैं अर्थात् बहुत अधिक भेद हैं-६५
अनहद ध्वनी (दोहा) पंच बीज संचार थी, अनहद धुन जो होय ।
निर्गम भेद धुनी तणों - जोगीश्वर लहे कोय ॥ ६६ ।। वरण मात्र इन बीज के, कमल कमल थित जान । भिन्न-भिन्न गुण तेहनो, शास्त्र थकी मन आन ॥ ६७ ॥
१२-योगाभ्यास में मन' का लय करने के लिए दस प्रकार के नाद शनैः-शनैः
खुलते हैं सो दस प्रकार के नांदों के नाम इस प्रकार हैं-१. चिन्न, २. चिन चिन्न, ३. छोटी घंटी जैसा नाद, ४. शंख जैसा नाद, ५. वीणा के गर्जन जैसा नाद, ६. ताल के जैसा नाद, ७. मुरली जैसा नाद, ८. पखावज जैसा नाद, ६. नफीरी जैसा नाद, १०. सिंह गर्जन जैसा नाद। इन दस नादों में से नव नादों को सुनते-सुनते जब दसवां नाद सुनाई देने लगे तब नव-नादों को छोड़कर दसवें को ही सुनते रहने का अभ्यास बढ़ावें। इसी नाद को अनहद. नाद कहते हैं। इस नाद की पक्व अवस्था में प्राणवायु और मन दोनों ही लय हो जायेंगे । इसलिए चतुर साधकों को चाहिए कि योगानुभवी सद्गुरु की शरण लेकर इस नाद को सुननेका अभ्यास करें।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org