Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ५, ८. आइरियपरंपरागयपवाइज्जतुवदेसादो । ण च महामच्छविक्खंभुस्सेहाणं सुत्तं णत्थि चेवे त्ति णियमो, देसामासिएण 'जोयणसहस्सिओ' त्ति उत्तेण सूचिदत्तादो । एदे विक्खंभुस्सेदा महामच्छस्स सव्वत्थ सरिसा । मुह-पुच्छेसु विवखंभुस्सेहाणं पमाणमेतिय होदि ति, एदेहितो पुघभूदविक्खंभुस्सेहाणं परूवयसुत्त-वक्खाणाणमणुवलंभादो जायणसहस्साणदेसण्णहाणुववत्तीदो च।
के वि आइरिया महामच्छो मुह पुच्छेसु सुठु सण्हओ ति भणति । एत्थतणमच्छे दळूण एदं ण घडदे, कहल्लिमच्छगेसु वियहिचारदसणादो । अधवा एदे विक्खंभुस्सेहा समकरणसिद्धा त्ति के वि आइरिया भणति । ण च सुठु सण्णमुहो महामच्छो अण्णेगंजोयणसदोगाहणतिमिगिलादिगिलणखमो, विरोहादो । तम्हा वक्खाणग्मि उत्तविक्खंभुस्सेहा चेव महामच्छस्स घेत्तव्वा । अधवा मज्झपदेसे चेव उत्तविक्खंभुस्सेहो मच्छो घेत्तव्वो, आदिमज्झवसाणेसु एदम्हाद। तिगुणं विपुंजमाणस्स उक्कस्सखेत्तुप्पत्तिं पडि विरोहाभावादो । 'सयंभुरमणसमुदस्से ' त्ति सव्वदीव-समुद्दबाहिरसमुद्दस्स गहणटुं । सव्वबाहिरो समुद्दो चेव
समाधान- वह आचार्य परम्पराके प्रवाह स्वरूपसे आये हुए उपदेशसे जाना जाता है । और महामत्स्यके विष्कम्भ व उत्सेधका ज्ञापक सूत्र है ही नहीं, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, 'जोयणसहस्सिओत्ति' अर्थात् एक हजार योजनवाला इस देशामर्शक सूत्रवचनसे उनकी सूचना की गई है।
ये विष्कम्भ और उत्सेध महामत्स्यके सब जगह समान हैं । मुख और पूंछमें विष्कम्भ एवं उत्सेधका प्रमाण इतने मात्र ही है, क्योंकि, इनसे भिन्न विष्कम्भ और उत्सेधकी प्ररूपणा करनेवाला सूत्र व व्याख्यान पाया नहीं जाता, तथा इसके विना हजार योजनका निर्देश बनता भी नहीं है।
महामत्स्य मुख और पूंछमें अतिशय सूक्ष्म है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु यहांके मत्स्योको देखकर यह घटित नहीं होता, तथा कहीं कहीं मत्स्यों के अंगोंमें व्याभिचार देखा जाता है। अथवा, ये विष्कम्भ और उत्सेध समकरणसिद्ध हैं, ऐला कितने ही आचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्म मुखसे संयुक्त महामत्स्य एक सौ योजनकी अवगाहनावाले अन्य तिमिंगल आदि मत्स्योके निगलनेमें समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें विरोध आता है । अत एव व्याख्यानमें महामत्स्यके उपर्युक्त विष्कम्भ और उत्सेधको ही ग्रहण करना चाहिये।
__ अथवा, उक्त विष्कम्भ और उत्सेध महामत्स्यके मध्य प्रदेशमें ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि आदि, मध्य और अन्तमें इससे तिगुणे फैलनेवालेके उत्कृष्ट क्षेत्रकी उत्पत्तिके प्रति कोई विरोध नहीं है।
'सयंभुरमणसमुदस्स' इस पदके द्वारा द्वीप-समुद्रों में सबसे बाहा समुद्रका ग्रहण किया गया है।
१ प्रतिषु मच्छाओसु' इति पाठः।- २ ताप्रती 'अणेग ' इति पाठः ।
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