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४, २, ६, २६९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे टुिंदिबंधझवसाणपरूवणा [३६३ वसाणाणमसंखेजलोगमेत्ताणं तिरिच्छेण रचणा कायव्वा । एवं रचणं कादूण सव्वहिदिविसेसहिदअज्झवसाणहाणाणं णिव्वग्गणाकंदयमेत्तखंडाणि कादव्वाणि । किं पमाणं णिव्वग्गणकंदयं ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । संदिट्ठीए तस्स पमाणं चत्तारि ४ । एदाणि खंडाणि किं समाणि, आहो विसमाणि ? ण होति समाणि, विसमाणि' चेव । कथं णव्वदे ? परमाइरियोवदेसादो । तं जहा-पढमखंडादो बिदियखंडं विसेसाहियं असंखेजलोगमेत्तेण । बिदियखंडादो वदियखंडं विसेसाहियं असंखेजलोगमेत्तेण । तदियखंडादो चउत्थखंडं विसेसाहियमसंखेजलोगमेत्तेण । एवं णेदव्वं जाव चरिमखंडं त्ति । णवरि पढमखंडादो वि चरिमखंडं विसेसाहियं चेव । कुदो ? परमाइरियोवदेसादो बाहाणुवलंभादो च । एत्य संदिट्ठी ।
एवं ठविय एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-णाणावरणीयस्स जहण्णियाए टिदीए जाणि
रचना करके ध्रुवस्थितिको आदि लेकर आगेके सब स्थितिविशेषों में रहनेवाले असंख्यात लोक प्रमाण सब अध्यवसानस्थानोंकी तिरछे रूपसे रचना करना चाहिये । इस प्रकार रचना करके सब स्थितिविशेषोंमें स्थित अध्यवसानस्थानोंके निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण खण्ड करना चाहिये। ... शंका निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण कितना है ?
समाधान-वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। संदृष्टि में उसका प्रमाण चार (४) है। शंका ये खण्ड क्या सम हैं, अथवा विषम ? समाधान-वे सम नहीं होते, विषम ही होते हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान--यह श्रेष्ठ आचार्योंके उपदेशसे जाना जाता है । जैसे-प्रथम खण्डकी अपेक्षा द्वितीय खण्ड असंख्यात लोक मात्रसे विशेष अधिक है । द्वितीय खण्डकी अपेक्षा तृतीय खण्ड असंख्यात लोक मात्रसे विशेष अधिक है। तृतीय खण्डकी अपेक्षा चतुर्थ खण्ड असंख्यात लोक प्रमाणसे विशेष अधिक है। इस प्रकार अन्तिम खण्ड तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रथम खण्डकी अपेक्षा भी अन्तिम खण्ड विशेष अधिक ही है, क्योंकि, ऐसा ही उत्कृष्ट आचार्योंका उपदेश है, तथा उसमें कोई बाधा भी नहीं पायी जाती है। यहां संहष्टि-(पृष्ठ ३४५पर देखिये) इस प्रकार स्थापित करके इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-शानावरणीयकी जघन्य स्थितिमें जो स्थितिबन्धाध्यघसानस्थान
- १ अ-आ-काप्रतिषु 'विसमाणि ण होति विसमाणि', ताप्रती 'विसमाणि ण होति ? विसमाणि' इति पाठः। २ अनोपलभ्यमाना संदृष्टयः ३४५ तमे पृष्ठे द्रष्टव्याः।
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