Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 393
________________ ३६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २७५ तिस्से चेव उक्कस्समणंतगुणं ॥ २७५॥ असंखेजलोगमेत्तछटाणाणि उवरि चडिदूण ट्ठिदत्तादो। तदियाए ट्ठिदीए जहण्णयं द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणमणंतगुणं ॥२७६॥ कारणं सुगमं, पुव्वं परूविदत्तादो। तिस्से चेव उक्कस्सयमणंतगुणं ॥ २७७॥ असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि उवरि चडिदूण द्विदत्तादो। एवमणंतगुणा जाव उक्कस्सटिदि ति ॥ २७८ ॥ ... एवं पुव्वुत्तकमेण अणंतगुणाए सेडीए णेदव्वं जाव उक्कस्सहिदि ति । णवरि उक्कस्सियाए ट्टिदीए जहण्णादो उक्कस्समणंतगुणमिदि वुत्ते चरिमखंडुक्कस्सपरिणामो अणंतगुणो ति घेत्तव्वं । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ २७९ ॥ जहा णाणावरणीयस्स तिन्वमंददाए अप्पाबहुगं परूविदं तहा सत्तण्णं कम्माण परवेदव्वं, विसेसाभावादो । एवं तिव्व-मंददा ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं हिदिसमुदाहारो समत्तो। एवं द्विदिबंधज्झवसाणपख्वणा समत्ता । एवं वेयणकालविहाणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं। उसी स्थितिका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है ॥ २७५॥ क्योंकि, वह जघन्य परिणामसे असंख्यात लोक प्रमाण छह स्थान आगे जाकरस्थित है। उससे तृतीय स्थितिका जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अनन्तगुणा है ॥ २७६ ॥ इसका कारण सुगम है, क्योंकि, यह पूर्वमें बतलाया जा चुका है। उसी स्थितिका उत्कृष्ट परिणाम उससे अनन्तगुणा है ॥ २७७ ॥ क्योंकि, यह उससे असंख्यात लोक मात्र छह स्थान आगे जाकर स्थित है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक वे अनन्सगुणे अनन्तगुणे हैं ॥ २७८॥ इस प्रकार अर्थात् पूर्वोक्त क्रमसे उत्कृष्ट स्थिति तक अनन्तगुणित श्रेणिसे ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य परिणामकी अपेक्षा उत्कृष्ट परिणाम ममन्तगुणा है, ऐसा कहनेपर अन्तिम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। - इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषयमें तीव्र-मन्दताके अल्पबहुत्वको कहना चाहिये।२७९॥ जिस प्रकार झानावरणीय कर्मके विषयमें तीव-मन्दताके अल्पबहुत्वकी मरूपणा की • गई है, उसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषयमें कहना चाहिये, क्योंकि वहां उसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार तीवमन्दता अनुयोगद्वार समाप्त हुश्रा । इस प्रकार स्थितिसमुहार समाप्त हुआ। इस प्रकार स्थितिबन्धाध्यवसान प्ररूपणा समाप्त हुई। इस प्रकार वेदनकालविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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