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४, २, ६, २७४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्झवसाणपरूवणां [३६७ द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणं सब्वमंदाणुभागं ॥२७२॥
सव्वहिदीसु पुणरुत्तहिदिबंधज्झवसाणहाणाणि अवणिय अपुणरुत्ताणि घेत्तूण एद- मप्पाबहुगं वुच्चदे । सव्वमंदाणुभागमिदि वुत्ते सव्वजहण्णसत्तिसंजुत्तमिदि घेत्तव्वं । सेसं सुगमं ।
तिस्से चेव उक्कस्समणंतगुणं ॥ २७३॥
तिस्से चेव जहण्णहिदीए पढमखंडस्स अपुणरुत्तस्स उक्कस्सपरिणामो अणंतगुणो, असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि उवरि चडिदण द्विदत्तादो। चरिमखंडुक्कस्सपरिणामो ण गहिदो त्ति कथं णव्वदे ? जहण्णहिदिउक्कस्सपरिणामादो समयाहियजहण्णट्ठिदीए जहण्णपरिणामो अणंतगुणो त्ति सुत्तणिदेसादो णव्वदे। बिदियाए ट्ठिदीए जहण्णयं ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणमणंतगुणं ॥२७४॥
पुविल्लउक्कस्सपरिणामो उव्वंको, एसो जहण्णपरिणामो अटुको ति काऊण हेडिमउक्कस्सपरिणामं सव्वजीवरासिणा गुणिदे उवरिमहिदिजहण्णपरिणामो होदि, तेण अणंतगुणत्तं ण विरुज्झदे । उवरिं पि उक्कस्सपरिणामादो जत्थ जहण्णपरिणामो अणंतगुणो त्ति वुच्चदि तत्थ एवं चेव कारणं वत्तव्वं । बन्धाध्यवसानस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला है ॥ २७२ ॥
सब स्थितियों में पुनरुक्त स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंको छोड़कर और अपुनरुकोंको प्रहण करके यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है। 'सवमंदाणुभाग' ऐसा कहनेपर सबसे जघन्य शक्तिसे संयुक्त है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अनन्तगुणा है ॥ २७३॥
उसी जघन्य स्थितिके अपुनरुक्त प्रथम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है, क्योंकि वह असंख्यात लोकमात्र छहस्थान आगे जाकर स्थित है। .
शंका अन्तिम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम नहीं ग्रहण किया गया है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट परिणामसे एक समय अधिक जघन्यस्थितिका परिणाम अनन्तगुणा है, ऐसा सूत्रमें निर्देश किया जानेसे उसका परिज्ञान होता है।
- द्वितीय स्थितिका जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अनन्तगुणा है ॥ २७४॥ ...... पूर्वका उत्कृष्ट परिणाम उर्वक और यह जघन्य परिणाम अष्टांक है, ऐसा करके अधस्तन उत्कृष्ट परिणामको सर्व जीवराशिसे गुणित करनेपर आगेकी स्थितिका जघन्य परिणाम होता है, इसी कारण उसके अनन्तगुणे होने में कोई विरोध नहीं है। आगे भी जहांपर उत्कृष्ट परिणामकी अपेक्षा जघन्य परिणाम अनन्तगुणा है, ऐसा कहा जाता है वहां पर भी यही कारण बतलाना चाहिये।
१संप्रति स्थितिसमुदहारे या प्राक् तीव्र-मन्दता नोक्ता साभिधीयते-अणंतेत्यादि । तद्यथाशानावरणीयस्य जघन्यस्थिती बघन्यस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानं सर्वमन्दानुभावम् । ततस्तस्यामेव जघन्यस्थिती उत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणम् । ततोऽपि द्वितीयस्थितो जघन्यं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानमनन्तगुणम् । ततोऽपि तस्यामेव द्वितीयस्थितो उत्कृष्टमनन्तगुणम् । एवं प्रतिस्थिति जघन्यमुत्कृष्टं च स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानमनन्तगुणतया तावद्वक्तव्यं यावदुत्कृष्टायां स्थितो चरमं स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानमनन्तगुणम् (१-३)। क. प्र. (म. टी.) १,८९.। २ अ-आ-काप्रतिषु-'पुणरूत्ताणि' इति पाठः।
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