Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 340
________________ ४, २, ६, १७४. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३१५ बिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरी ॥ १७१ ॥ सादतिट्ठाणुभागबंधएहिंतो सादस्सेव बिट्ठाणाणुभागबंधया जीवा संकिलिट्ठदरा, संकिलेसेणे अहिया त्ति भणिदं होदि । सव्वविसुद्धा असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा ॥१७२ ॥ असादस्स तिट्ठाणाणुभागबंधएहितो तस्सेव बिट्ठाणाणुभागबंधया मंदकसाया त्ति भणिदं होदि। तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्टदरा ॥ १७३ ॥ __ असादस्स बिट्ठाणाणुभागबंधएहिंतो तिहाणाणुभागबंधया जीवा सुळुक्कडसंकिलेसा होति । कुदो ? साभावियादो। चउट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्टदरा ॥ १७४॥ असादतिहाणाणुभागबंधएहिंतो तस्सेव चउट्ठाणाणुभागबंधयाणं कसायो अइबहुलो होदि । कुदो ? साभावियादो । संकिलेसे वट्ठमाणे सादादीणं सुहपयडीणमणुभागबंधो हायदि, असादादीणमसुहपयडीणमणुभागबंधो वढदि । संकिलेसे हायमाणे सादादीणं . . द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७१॥ . साताके त्रिस्थानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा साताके ही द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं, अर्थात् वे अधिक संक्लेशवाले हैं। असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध हैं ॥ १७२ ॥ ... असाता वेदनीयके त्रिस्थानानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा उसके ही द्विस्थानानुभाग बन्धक जीव मन्दकषायवाले है, यह सूत्रका अभिप्राय है। . त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७३ ॥ असाताके द्विस्थानानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा उसके ही त्रिस्थानानुभागबन्धक जीव अति उत्कट संक्लेशसे संयुक्त होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। - चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७४ ॥ असाताके त्रिस्थानानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा उसके ही चतुःस्थानानुभागबन्धकोंकी कषाय अतिशय बहुल होती है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। संक्लेशकी वृद्धि होनेपर साता आदिक शुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध हीन होता है और असाता आदिक अशुभ .............................. १ संक्लिष्टपरिणामास्तु द्विस्थानगतम् । क. प्र. (म.टी.) १,९१.। २ अ-आ-काप्रतिषु 'सेकिलेसेवां इति पाठः। ३ ये पुनस्तद्योग्यमूमिकानुसारेण सर्वविशुद्धा परावर्तमाना अशुभप्रकृतीबध्नन्ति ते तासद्विस्थानगतं रस निवर्तयन्ति क. प्र. (म. टी.) १,९१। ४ मध्यमपरिणामत्रिस्थानगम् । क. प्र. (म. टी.) १,८१.५ संक्लिष्ट्रपरिणामास्तु चतुःस्थानगतम् । क. प्र. (म. टी.) १,९१. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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