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खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ६, २४४. त्तादो। हिदिबंधहाणाणं पहाणत्ते इच्छिज्जमाणे गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो होदि । होदु णाम, असंखेजलोगभेत्तो चेवेत्ति गुणगारे अम्हाणं पमाणणियमाभावादो। णामा-गोदज्झवसाणहाणाणं कधं तुलत्तं ? ण, हिदिं बंधताण समाणत्तणेण तत्तुल्लत्तावगमादो।
णाणावरणीय-दंसणावरणीय-वेयणीयअंतराइयाणं विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि चत्तारि वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४४ ॥
णामा-गोदेहिंतो चत्तारि वि कम्माणि मिच्छत्तासंजम-कसायपच्चएहि सरिसाणि । तेण णाभा-गोदाणं अज्झवसाणेहिंतो चदुण्णं कम्माणं अज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि त्ति ण घडदे । णामा-गोदाणं द्विदिबंधहाणहितो चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि त्ति असंखेजगुणतं ण जुजदे । हेहिमबेतिभागढिदिबंधटाणपाओगकसाएहिंतो उवरिमतिभागढिदिबंधहाणपाओग्गकसाउदयट्ठाणाणं असमाणाणमणुवलंभेण
__ समाधान-चूंकि उसके स्थितिबन्धस्थान स्तोक हैं, अतः इसीसे उसके . स्थितिवन्धाध्यवसानस्थानोंकी स्तोकताका भी परिक्षान हो जाता है।
स्थितिबन्धस्थानोंकी प्रधानताके अभीष्ट होनेपर गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग होता है।
शंका यदि पल्योपमक असंख्यातवां भाग गुणकार है तो, हो, क्योंकि असंख्यात लोक मात्र ही गुणकार होता है, ऐसा हमारे पास उसके प्रमाणका कोई नियम नहीं है।
शंका नाम व गोत्रके स्थितिबन्धस्थानोंके परस्पर समानता कैसे है ?
समाधान नहीं, क्योंकि स्थितिबन्धस्थानोंकी समानतासे उनकी समानता भी निश्चित है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इन चारों ही कर्मों के स्थितिबन्धस्थान तुल्य व असंख्यातगुणे हैं ॥ २४४ ॥
__ शंका-चारों ही कर्म मिथ्यात्व, असंयम और कषाय रूप प्रत्ययोंकी अपेक्षा चूंकि नाम-गोत्रके समान हैं इसी कारण नाम-गोत्रके अध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा चारों कर्मों के अध्यवसानस्थानोंको असंख्यातगुणा बतलाना संगत नहीं है। दूसरे, नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान चूंकि विशेष अधिक हैं, इसलिये भी उनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकों असंख्यातगुणा बतलाना उचित नहीं ? इसके अतिरिक्त चूंकि नीचेके दो त्रिभाग मात्र स्थितिबन्धस्थानोंके योग्य कषायोदयस्थानोंकी अपेक्षा ऊपरके एक त्रिभाग मात्र स्थितिबन्धस्थानोंके योग्य कषायोदयस्थानोंके असमान न पाये जानेसे भी उनका असंख्यातगुणत्व घटित नहीं होता?
१ नाम-गोत्रयोः सत्कस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यो ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय-वेदनीयान्तरायाणं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि । कथमिति चेदुच्यते-इह पल्योपमासंख्येयभागमात्रासु स्थितिध्वतिक्रान्तासु द्विगुणवृद्धिरुपलब्धा । तथा च सत्येकैकस्यापि पल्योपमस्यान्तेऽअसंख्येयगुणानि लभ्यन्ते, किं पुनर्दशसागरोपमकोटीकोट्यन्ते इति । क.प्र. (म. टी.) १,८९.।
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