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४, २, ६, २४३. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे डिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३४७ तधा सेससत्तण्णं कम्माणं पमाणपख्वणा कायव्वा । एवं पमाणाणुगमे त्ति समत्तमणियोगद्दारं ।
अप्पाबहुए ति सव्वत्थोवा आउअस्स द्विदिबधंज्झवसाणडाणाणि' ॥ २४२ ॥
__कुदो ? चदुण्णमाउआणं सव्वोदयवियप्पग्गहणादो । कसायउदयट्ठाणेसु उच्चिदूर्ण गहिदझवसाणहाणाणमाउअबंधपाओग्गाणं किण्ण [ पवणा] कीरदे ? ण, सगहिदिबंधहाणहेदुभृदसोदयहाणाणं परूवणाए अण्णपयडिउयहाणेहि पओजणाभावादो।
___णामा-गोदाणं हिदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४३॥
कुदो ? साभावियादो । णामा-गोदाणमुदयस्सेव आउओदयस्स संसारावत्याए सव्वत्थ संभवे संते हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं थोवत्तं कत्तो णव्वदे ? ठिदिबंधट्ठाणाणं थोवप्रमाणप्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कमौकी प्रमाणप्ररूपणा भी करना चाहिये। इस प्रकार प्रमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके अनुसार आयुकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसान सबसे स्तोक हैं ॥ २४२ ॥ ___कारण कि चारों आयुओंके सब उदयविकल्पोंका यहां ग्रहण किया गया है ।
शंका-कषायोदयस्थानोंमेंसे चुनकर ग्रहण किये गये आयुबन्धके योग्य अध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा यहां क्यों नहीं की जाती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अपने स्थितिबन्धस्थानोंके हेतुभूत अपने उदयस्थानोंकी प्ररूपणामें दूसरी प्रकृतियोंके उदयस्थानोंका कोई प्रयोजन नहीं है।
' नाम व गोत्रके स्थितिबन्धस्थान दोनोंही तुल्य असंख्यातगुणे हैं ॥ २४३ ॥ कारण कि ऐसा स्वभावसे है।
शंका--जिस प्रकार संसार अवस्थामें नाम व गोत्रका उदय सर्वत्र सम्भव है, उसी प्रकार आयुके उदयकी भी सर्वत्र सम्भावना होनेपर उसके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी स्तोकता कहांसे जानी जाती है
१ठिइदीहयाए त्ति-स्थितिदीर्घतया क्रमशः क्रमेणाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि । यस्य यतः क्रमेण दीर्घा स्थितिस्तस्य ततः क्रमेणाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानीत्यर्थः । तथाहि
-सर्वस्तोकान्यायुषः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि । क. प्र. (म. टी.) १,८९.। २ प्रतिषु 'उन्विदूण' इति पाठः। ३ तेभ्योऽपि नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुणानि । नन्वायुषः स्थितिस्थानेषु यथोत्तरमसंख्येयगुणा बृद्धिः, नाम-गोत्रयोस्तु विशेषाधिका, तत्कथमायुरपेक्षया नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुगानि भवन्ति ? उच्यते-आयुषो जघन्यस्थितावध्यवसायस्थानान्यतीव स्तोकानि, नाम-गोत्रयोः पुनर्जघन्यायां स्थितौ अतिप्रभूतानि, स्तोकानि चायुषः स्थितिस्थानानि, नाम-गोत्रयोस्त्वतिप्रभूतानि, ततो न कश्चिद्दोषः । क. प्र. (म. टी.) १,८९.। .
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