Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 376
________________ ४, २, ६, २५०. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंध व साणपरूवणा धुवदिदो समउत्तरद्विदीए पुधत्तुवलंभादो । तिस्से हिंदीए बंधपाओग्गज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्तछट्टाणाणि होति त्ति भणिदं होदि । [ ३५१ तदियाए हिदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि असंखेज्जा लोगा ॥ २४९ ॥ अनंतभागवढ्ढीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं गंतॄण सइमसंखेजभागवडी होदि । पुणो वि तेत्तियमेत्तं चैव अनंतमागवड्डीए अद्धाणं गंतॄण बिदियअसंखेजभागवड्डी होदि । एवं कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डीओ कंदयवग्र्ग - कंदयमेत्तअणंतभागवड्डीयो च गंतूण सई संखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो वि एत्तियमेत्तं चेव अद्धाणं पुव्वविहाणेण गंतॄण बिदिया संखेज्जभागवड्डी होदि । एवमेदेण विहाणेण कंदयमेत्तसंखेज्जभागवड्डीसु गंदासु समयाविरोहेण सई संखेजगुणवड्डी होदि । एदेण कमेण कंदयमेत्तसंखेजगुणवड्डीसु गदासु सइमसंखेज्जगुणवडी होदि । पुणो समयाविरोहेण कंदयमेत्तअसंखेज्जगुणवड्डीसु गदासु सइमणंतगुणवड्डी होदि । एदं सव्वं पि एगं छट्टाणं त्ति भण्णदि । एरिसाणि असंखेज्जदिलोगमेत्तछट्ठाणाणि घेत्तूण दिया हिदी बिंधज्झवसाणद्वाणाणि होंति । 1 एवमसंखेज्जा लोगा असंखेज्जा लोगा जाव उक्कस्सट्टिदि त्ति ॥ २५० ॥ जाती है। उक्त स्थितिके बन्धके योग्य अध्यवसानस्थान असंख्यात लोक मात्र छह स्थानोंसे संयुक्त होते हैं, यह अभिप्राय है । तृतीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २४९॥ अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्तभागवृद्धिके स्थानोंके वीतनेपर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है । फिरसे भी उतना ही अनन्तभागवृद्धिका अध्वान जाकर द्वितीय असंख्यात भागवृद्धि होती है । इस प्रकारसे काण्डक प्रमाण असंख्यात भागवृद्धियों, काण्डक वर्ग और काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंके वीतने पर एक वार संख्यात भागवृद्धि होती है । फिरसे भी पूर्वोक्त रीतिसे इतने मात्र स्थान जाकर द्वितीय संख्यात भागवृद्धि होती है । इस प्रकार इस रीतिसे काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियोंके वीतने पर आगमाविरोधसे एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस क्रमसे काण्डुक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंके वीत जानेपर एक वार असंख्यातगुणवृद्धि होती है । पश्चात् आगमाविरोधसे काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियोंके बीतनेपर एक वार अनन्तगुणवृद्धि होती है । यह सभी एक षट्स्थान कहा जाता है। ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान ग्रहण करके तृतीय स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं ॥ २५० ॥ १ प्रतिषु ' कंदयवग्गो कंदय' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org

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