Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 374
________________ ४, २, ६, २४६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३४९ असंखेजगुणत्ताणुववत्तीदो ? ण एस दोसो, णामा-गोदाणमुदयट्ठाणेहिंतो चदुण्णं कम्माणं उदयट्ठाणबहुत्तेण असंखेजगुणत्ताविरोहादो। कथं चदुण्णं कम्माणं पयडिअज्झवसाणाणं अण्णोण्णं समाणत्तं ? ण, सोदयादिवियप्पेहि तेसिं भेदाभावादो। मोहणीयस्स विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४५॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? चदुण्णं कम्माणमुदयहाणेहिंतो मोहणीयस्स उदयट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तादो । एवं पगडिसमुदाहारो समत्तो। ठिदिसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि पगणणा अणुकट्ठी तिव्व-मंददा ति ॥ २४६ ॥ तत्थ पगणणा णाम इमिस्से इमिस्से ह्रिदीए बंधकारणभृदाणि द्विदिबंधज्झवसाणहाणाणि एत्तियाणि एत्तियाणि होति त्ति हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं पमाणं पख्वेदि । तत्य अणुकही णाम हिदि पडि हिदिबंधज्झवसाणहाणाणं समाणत्तमसमाणत्तं च परूवेदि । तिव्व-मंददा णाम तेसिं जहण्णुक्कस्सपरिणामाणमविभागपडिच्छेदाणमप्पाबहुगं पख्वेदि । समाधान यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, नाम-गोत्रके उदयस्थानोंकी अपेक्षा चार कमौके उदयस्थानोंके बहुत होनेसे उनके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं है । शंका-चार कर्मों के प्रकृतिअध्यवसानस्थानोंके परस्पर समानता कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि स्वोदयादिक विकल्पोंकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है। मोहनीयके स्थितिषन्धाध्यवसानस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २४५॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, चार कर्मों के उदयस्थानोंकी अपेक्षा मोहनीयके उदयस्थान असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार प्रकृतिसमुदहार समाप्त हुआ। अब स्थितिसमुदाहारका अधिकार है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार है-प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्रमन्दता ॥ २४६॥ इनमें प्रगणना नामक अनुयोगद्वार अमुक अमुक स्थितिके बन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान इतने इतने होते हैं, इस प्रकार स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करता है। अनुकृति अनुयोगद्वार प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी समानता व असमानताको बतलाता है। तीवमन्दता अनुयोगद्वार उनके जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोंके अविभाग प्रतिच्छेदोंके अल्पहुत्वकी प्ररूपणा करता है। १ तेभ्योऽपि कषायमोहनीयस्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि दर्शनमोहनीयस्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि । क. प्र. (म. टी.) १,८९.। २ तत्र स्थितिसमुदाहारेऽपि त्रीण्यनुयोगद्वाराणि । तद्यथा-प्रगणना १, अनुकृष्टिः २, तीव्रमन्दता ३ च । तत्र प्रगणना प्ररूपणार्थमाह-क. प्र. (म. टी.) १,८७ गाथाया उत्थानिका । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'पयति' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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