________________
४, २, ६, २००. ] वेयणमहाहियारे वेयणकाविहाणे विदिबंधज्झवसाणपरूवंणां ३२७
सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए द्विदीए जीवेहितो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं मंतूण दुगुणवढिदा ॥ १९६ ।।
सुगममेदं । . एवं दुगुणवड्ढिदा दुगुणवड्ढिदा जाव सागरोक्मसदपुधत्तं ॥ १९७॥
एवं पि सुगमं ।
तेण परं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागं गंतूण दुगुणहीणा ॥ १९८ ॥
एदं पि सुगमं ।
एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सादस्स असादस्स उक्कस्सिया हिदि त्ति ॥ १९९ ॥ .
एदं पि सुगमं ।
एगजीव-दुगुणवढि-हाणिटाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥२००॥
पुव्वं गुणहाणीए आयामो सामण्णेण परूविदो, विसेसेण विणा पलस्स असंखेजदि
सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव व असातावेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं ॥ १९६॥ ___यह सूत्र सुगम है।
इस प्रकार शतपृथक्त्व सागरोपमों तक दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं ॥ १९७॥
यह सूत्र भी सुगम है।
इसके आगे पल्योपमका असंख्यातवां भाग जाकर वे दुगुणी हानिको प्राप्त होते गये हैं ॥ १९८॥
यह सूत्र भी सुगम है।
इस प्रकार साता व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति तक दुगुणे दुगुणे हीन होते गये हैं॥१९९॥.
यह सूत्र भी सुगम है।
एकजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल प्रमाण है ॥२०॥ पहिले सामान्य रूपले गुणहानिके आयामकी प्ररूपणा की गई है, क्योंकि, वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org