Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 353
________________ १८) - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०१. पो त्ति उवइट्टत्तादो । संपधि तस्स अद्धाणस्स विसेसो एदेण सुत्तेण परूविदो । असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि त्ति भणिदे असंखेजा पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि त्ति घेत्तव्वं, विदियादिवग्गमूलेसु वग्गिदेसु पलिदोवमाणुप्पत्तीदो। . णाणाजीव-दुगुणवढि-हाणिट्टाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो ॥२०१॥ पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदि भागमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होति त्ति जदि वि सामण्णेण उत्तं तो वि पलिदोवमअद्धछेदणएहिंतो थोवाओ ति घेत्तव्वं । कुदो ? एदेसिमण्णोण्णभत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो ति गुरूवदेसादो । णाणाजीव-दुगुणवढि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥२०२॥ कुदो ? पलिदोवमादो असंखेजाणि वग्गट्ठाणाणि हेट्ठा ओसरिय उप्पण्णत्तादो । एगजीव-दुगुणवढि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ २०३॥ कुदो ? असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । कम्मपदेसगुणहाणीदो एसा जीवगुणहाणी किं सरिसा किमसरिसा त्ति पुच्छिदे एवं ण जाणिजदे । कुदो ? सुत्ताभावादो । एवं सेडिपरूवणा समता। विशेषके विना पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण है, ऐसा उपदिष्ट है । इस समय इस सूत्रके द्वारा उस अध्वानका विशेष बतलाया गया है। 'असंखेज्जाणि पलिदोषमबग्गमलाणि' ऐसा कहनेपर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमलोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, द्वितीयादि वर्गमूलोंका वर्ग करनेपर पल्योपम उत्पन्न नहीं होता है। नानाजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ २०१॥ ___यद्यपि पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण नानागुणहानिशलाकायें होती हैं, ऐसा सामान्य रूपसे कहा गया है, तो भी वे पल्योपमके अर्धच्छेदोंसे स्तोक हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये; क्याकि, इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, ऐसा गुरुका उपदेश है। नानाजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ २०२॥ क्योंकि, वे पल्योपमसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे हटकर उत्पन्न हुए हैं। एकजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ २०३॥ · क्योंकि, वह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंके बराबर है। कर्मप्रदेशोंकी गुणहानिकी अपेक्षा यह जीवगुणहानि क्या सहश है या विसदृश है, ऐसा पूछनेपर उसका उत्तर शात नहीं होता, क्योंकि, उसकी प्ररूपणा करनेवाला कोई सूत्र नहीं है। इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई। १ प्रतिषु ' वग्गेसु' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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