Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 359
________________ ३३४ ] .. खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०६. सागारो णाणोवजोगो, तत्थ कम्म-कत्तारभावसंभवादो। तस्स सागारस्स पाओग्गाणि द्विदिषधटाणाणि सव्वत्थ अस्थि । भावत्थो-जाणि हिदिबंधहाणाणि दंसणोवजोगेण सह बझंति ताणि णाणोवजोगेण वि बझंति । जाणि दंसणोवजोगेण ण बझंति' हिदिषधहाणाणि ताणि वि णाणोवजोगेण बझंति त्ति उत्तं होदि । एदेसि छष्ण जवाणं हेहिम-उवरिमभागाणं थोवबहुत्तजाणावणहमणागारैपाओग्गट्ठाणाणं पमाणजाणावणटुं च उवरिलमप्पाबहुगसुत्तमागदं सादस्स चउट्ठाणिय॑जवमज्झस्स हेट्टदो टाणाणि थोवाणि । २०६॥ कुदो १ सागरोवमसदपुधत्तपमाणत्तादो। उवरि संखेज्जगुणाणि ॥ २०७॥ जवमज्झादो उवरिमट्टिदिबंधढाणाणि संखेजगुणाणि । किं कारणं ? अइविसुद्धहिदीहितो मंदविसुद्धहिदीणं बहुत्ताविरोहादो। साकारसे अभिप्राय ज्ञानोपयोगका है, क्योंकि, उसमें कर्म और कर्तृत्वकी सम्भावना है। उक्त साकार उपयोगके योग्य स्थितिबन्धस्थान सर्वत्र होते हैं । भावार्थ-जो स्थितिबन्धस्थान दर्शनोपयोगके साथ बँधते हैं वे ज्ञानोपयोगके साथ भी बँधते हैं। जो स्थितिबन्धस्थान दर्शनोपयोगके साथ नहीं बंधते हैं वे भी शानोपयोगके साथ बँधते है, यह उसका अभिप्राय है। इन छह यवोंके अधस्तन और उपरिम भागोंके अल्पबहुत्वको बतलानेके लिये तथा मनाकार उपयोगके योग्य स्थानोंके प्रमाणको भी बतलानेके लिये आगेका अल्पबहुत्वसूत्र प्राप्त होता है साता वेदनीयके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान स्तोक हैं ॥ २०६॥ कारण कि वे शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण हैं। उपरिम स्थान उनसे संख्यातगुणे हैं ॥ २०७ ॥ यबमध्यसे ऊपरके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, अति विशुद्ध १ ताप्रतो 'बाणि दंसणोवजोगेण ण बति' इत्येतावानयं पाठस्त्रुटितोऽस्ति । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु तिण्णि' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'अणगार' इति पाठः (काप्रतौ श्रुटितोऽत्र पाठः)। ताप्रती'चउट्ठाणिया जव-' इति पाठः । ५...हिट्ठा थोवाणि जवमज्झा ।। ठाणाणि चउट्ठाणा संखेजगणाणि उवरिमेवन्ति (एवं)। तिट्ठाणे बिट्ठाणे सुभाणि एगतमीसाणि || उवरिं मिस्साणि जहनगो सुभाणं तो विसेसहियो। होह सुभाण जहण्णो संखेज्जगुणाणि ठाणाणि ॥ बिट्ठाणे जवममा हेट्टा एगंत मीसगाणवरि । एवं ति-चउठाणे जवमझाओ य डायठिई॥ अंतोकोडाकोडी सुभबिहाण जवमाश्री उरि। एगंतगा विसिवा मुमजिट्ठा डायट्टिइजेड्डा ॥ क. प्र. १,९५-१००, परावर्तमानशुभप्रकवीनां चत स्थानकरसयवमध्यादयः स्थितिस्थानानि सर्वस्तोकानि (म.टी. १,९६)। तेभ्यतास्थाम. करसयवमध्यस्यैवोपरि स्थितिस्थानानि संखेयगुणानि (२)। क. प्र. (म. टी.) १,९७. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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