Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

Previous | Next

Page 368
________________ ४, ५, ६, २३८. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्मवसाणपरूवणा [३४३ जुअदि ? ण, सादावेदणीयबंधगद्धादो संखेजगुणाए असादावेदणीयबंधगद्धाए संचिदाणं संखेजगुणत्तेण विरोहाभावादो संखेजगुणत्तं जुज्जदे ।। चउट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥ २३७ ॥ कुदो ? असादविट्ठाणुभागबंधपाओग्गट्टिदिविसेसेहिंतो तस्सेव चउहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसाणं संखेजगुणतुवलंभादो। तिट्ठाणबंधा जीवा विसेसाहिया ॥२३८॥ असादस्स चउट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसेहितो तस्सेव तिहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसा संखेजगुणहीणा । तदो तिहाणबंधजीवाणं विसेसाहियत्तं [ण ] जुनदि त्ति? ण एस दोसो, सुक्कुक्कस्सपरिणामेसु बहुहिदिविसेसेसु वट्टमाणजीवहिंतो थोवहिदिविसेसेसु मज्झिमपरिणामेसु च वट्टमाणजीवाणं बहुत्तं पडि विरोहाभावादो। ण च बहुसंकिलेसविसोहीसु खल्लविल्लसंजोगो ब्व तुट्टीए समुप्पजमाणासु जीवबहुत्तं संभवदि, तहाणुवलंभादो । संखेजगुणा ण होंति, विसेसाहिया चेव होंति ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो समाधान नहीं, क्योंकि, सातावेदनीयके बन्धककालकी अपेक्षा संख्यातगुणे असाता वेदनीयके बन्धक कालमें संचित जीवोंके संख्यातगुणत्वसे कोई विरोध न होनेके कारण उनको संख्यातगुणा कहना उचित ही है। चतुःस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३७॥ कारण कि असाता वेदनीयके द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उसके ही चतुःस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे पाये जाते हैं। त्रिस्थानबन्धक.जीव विशेष अधिक हैं ॥ २३८ ॥ शंका-असाता वेदनीयके चतुःस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उसके ही त्रिस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे हीन हैं । इस कारण त्रिस्थानबन्धक जीवोंको उनसे विशेष अधिक कहना उचित [ नही ] है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, शुक्ललेश्याकै उत्कृष्ट परिणामों में बहुत स्थितिविशेषोंमें वर्तमान जीवोंकी अपेक्षा स्तोक स्थितिविशेषों और मध्यम परिणामों में वर्तमान जीवोंके बहुत होने में कोई विरोध नहीं है । स्वस्थ बिल्बसंयोग (खल्वाट और बिल्व फलके संयोग) के समान त्रुटिसे अर्थात् यदा कदाचित् उत्पन्न होनेवाले बहुत संक्लेश व बहुत विशुद्धिमें जीवोंकी अधिकता सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। शंका-वे संख्यातगुणे नहीं हैं, विशेष अधिक ही हैं; यह कैसे जाना जाता हैं ? समांधान-वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। . १ अप्रतौ 'खल्लविल्लसंतो व्व तुट्ठीए', आ-काप्रत्योः 'खल्लविलसंजो व्व तुट्ठीए' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'जवबहुतं' इति पाठः। ३ ताप्रतो 'विसेसाहिया होति' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410