Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 350
________________ ४, २, ६, १९२. ] वेयणमहा हियारे वेयणकाळविहाणे द्विदिबंधझवसाणपरूवणा [ ३२५ देसि दोणं जवमज्झाणं पुध परूवणा किमहं कदा ? पुव्विल्लचदुण्णं जवमज्झाणं जवमज्झादो हेट्ठिम-उवरिमअद्धाणाणि सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि चेव, एदेसिं दोण जवमज्झाणं हेट्ठिमअद्धाणाणि सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि, उवरिमअद्धाणाणि पुण पण्णारसतीससागरोवमकोडाकोडिमेत्ताणि त्ति जाणावणङ्कं पुध परूवणा कदा । एत्थ छष्णं पि जवमज्झाणं एगेगगुणहाणिअद्धाणं समाणं । कुदो । गुरूवएसादो । णाणागुणहाणिसला - गाओ पुण असमाणाओ,' जवमज्झे हिमउवरिमअद्धाणाणं अण्णोष्णसमाणत्ताभावादो । एत्थ संदिट्ठी एसा १६।२०|२४|२८|३२|४०|४८/५६/६४|५६।४८|४०|३२|२८|२४| २०।१६।१४|१२|१०|८|७ | ६ | ५ | एवमणंतरोवणिधा समत्ता । परंपरोवणिधाए सादस्स चउट्टाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स विद्वाणबंधा तिट्ठाणबंधा णाणावरणीयस्स जहण्णियाए ट्टिदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवदि ॥ ९९२ ॥ तदो जहणट्ठाणजीवेहिंतो त्ति [ उत्तं ] होदि । जहण्णट्ठाणजीवेर्हितो दुगुणत्तं शंका- - इन दो· यवमध्योंकी पृथक् प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधान-पूर्व चार यवमध्यों सम्बन्धी यवमध्यसे नीचे व ऊपरके मध्यान शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण ही हैं, परन्तु इन दो यवमध्योंके नीचेके अध्वान शतपृथक्त्व: सागरोपम प्रमाण और उपरिम अध्वान पन्द्रह व तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण हैं; इस बात को बतलानेके लिये उनकी पृथक प्ररूपणा की गई है। यहां छह यवमयोंकी एक एक गुणहानिका अध्वान समान है, क्योंकि, ऐसा गुरुका उपदेश है । परन्तु नानागुणद्दानिशलाकायें असमान हैं, क्योंकि, यवमध्य में नीचे व ऊपरके अध्वानोंके परस्पर संमानता नहीं है। यहां उनकी संदृष्टि: यह है - ( मूलमें देखिये ) इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई । परम्परोपनिधाकी अपेक्षा साताके चतुस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव तथा असाताके द्विस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा उनसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं । १९२ ॥ ' तदो' पदका अर्थ ' जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा' है । अर्थात् वे जघन्य १ ताप्रयो ' असमाणाओ त्ति', इति पाठः । २ पल्लासंखियमूलानि गंतुं दुगुणा य द्रुगुणहीणा य ! नाणंतराणि पलस्त मूलभागो असंखतमो ॥ क. प्र. १,९५ । पल्लत्ति - परावर्तमानशुभप्रकृतीनां चतुः स्थानगतरसबन्धका वप्रकृतीनां जघम्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना ये जीवास्तदपेक्षया जघन्यस्थितेः परतः पस्योपमस्यासंख्येयानि बर्गमूलानि - पल्योपमस्या संख्येयेषु वर्गमूलेषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यान्तरे स्थितिस्थाने द्विगुणा भवन्ति ( म. डी. ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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