Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 342
________________ ४, २, ६, १७७. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्ञवसाणपरूवणा [३१७ यस्स [उक्कस्स] हिदिबंधासंभवादो। ण जहण्णयं पि बंधति, उक्टविसोहीए अभावादो। तम्हा सादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणादीणमजहण्णमणुक्कस्सियं हिदि बंधंति त्ति उत्तं । सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा सादस्स चेव उक्कस्सियं टिदि बंधति ॥ १७७॥ सादस्स बिट्ठाणबंधया जीवा जेण उक्कट्ठसंकिलेसा तेण सादस्स उक्कस्सियं हिदि बंधंति, ण णाणावरणीयस्स; ओघुक्कस्ससंकिलेसाभावादो। ण च सादबंधपाओग्गउक्कस्ससंकिलेसेण णाणावरणीयस्स उक्कस्सहिदि बंधदि, विरोहादो । ण च सादस्स बिट्टाणबंधया सव्वे वि सादुक्कस्सहिदि पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तं बंधति, तत्थे अणुक्कस्सहिदिबंधस्स वि उवलंभादो। तम्हा अजोगववच्छेदो एत्थ कायबो (अत्रोपयोगिनौ श्लोको विशेषण-विशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः । पार्थों धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वायां ॥७॥ अयोगमपर्योगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः ॥८॥ उत्कृष्ट संक्लेशके विना बानावरणीय [ उत्कृष्ट ] स्थितिवन्धकी सम्भावना नहीं है। उसकी जघन्य स्थितिको भी नहीं बांधते हैं, क्योंकि उनके उत्कृष्ट विशुद्धिका अभाव है । अतएव त्रिस्थानबन्धक जीवशानाधरणादिकोंकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं, ऐसा कहा गया है। .. साताके द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं ॥१७॥ सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव कि उत्कृष्ट संक्लेशसे संयुक्त होते हैं अतःवे साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं, न कि भानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिको, क्योंकि यहां सामान्य उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है। साताके बन्ध योग्य उस्का संक्लेशहानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि, इसमें विरोध है। दूसरे, साता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक सभी जीव सातावेदनीयकी पन्द्रह कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, क्योंकि उनमें उसका अनुत्छर. स्थितिबन्ध भी पाया जाता है। इस कारण यहां अयोगव्यवच्छेद करना चाहिये । यहां उपयोगी दो श्लोक निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है । विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग ( अन्ययोग) १ अ-का-ताप्रतिषु संकिलेसेहि वि णाणावरणीयस्स' इति पाठः। २ अ-आ-का-ताप्रतिषु 'ण' इत्येतत्पदं नास्ति, मप्रती स्वस्ति तत् । ३ प्रतिषु 'उक्कस्सहिदी' इति पाठः। ४ आप्रतो 'सागरोवममेत कोगकोडी बन्नन्ति' इति पाठः।५ अप्रतो 'तस्त' इति पाठः। ६ ताप्रतो 'वामथा (१) इति पाठः। ७ अ-काप्रत्योः -योगमेव' इति पाठः।८ प्रमाणवार्तिक ४-१९०.। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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