Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 345
________________ १२.] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १८१. सादासादाणं चउहाण-तिहाण-बिट्ठाणाणुभागबंधेसु हिदीणं संकिलेस-विसोहीणं च पमाणं परूविय संपहि हिदीयो आधारं कादूण तत्थ द्विदजीवाणं सेडिपवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि तेसिं दुविहा सेडिपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ १८१ ॥ एदं सुत्तं देसामासियं, सेडिपरूवणं भणिदूण परूवणा-पमाण-अवहार-भागाभागअप्पाबहुगाणं सूचयत्तादो । तेण ताव परूवणादीणं पण्णवणा कीरदे । तं जहा- सादस्स चउहाणबंधया तिहाणबंधया बिट्ठाणबंधया असादस्स बिट्ठाणबंधया तिट्ठाणबंधया चउहाणपंधया णाणावरणीयस्स सग-सगजहणियाए द्विदीए अस्थि जीवा बिदियाए ठिदीए अस्थि जीवा एवं णेयव्वं जाव अप्पप्पणो उक्कस्सहिदि त्ति । परूवणा गदा। __ सादस्स चउठाण-तिहाण-बिट्ठाणबंधया असादस्स बिट्ठाण-तिहाण-चउठाणबंधगा णाणावरणीयस्स सग-सगजहण्णियाए हिदीए जीवा पदरस्स असंखेजदिमागमेत्ता, बिदियाए ठिदीए पदरस्स असंखेजदिभागमेत्ता, एवं णेदव्वं जाव अप्पप्पणो उक्कस्सहिदि त्ति । सादबिहाणिय जवमज्झादो असादचउहाणियजवमज्झादो च उवरिमहिदीसु कत्थ वि सेडीए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा किण्ण होति त्ति उत्ते- ण होति । किं कारणं? अप्पप्पणो चतुःस्थान, त्रिस्थान और विस्थान रूप अनुभागबन्धों में स्थितियो एवं संक्लेश व विशुद्धिके प्रमाणकी प्ररूपणा करके अब स्थितियोंका आश्रय करके उनमें स्थित जीवोंकी श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । उनकी श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ॥१८॥ - यह सूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह श्रेणिप्ररूपणाको कहकर प्ररूपणा, प्रमाण, अवहार, भागाभाग और अलाबहुत्व अनुयोगद्वारोंका सूचक है। अतएव पहिले प्ररूपणा आदिक अनुयोगद्वारोंका प्रज्ञापन किया जाता है। यथा-सातावेदनीयके चतु:स्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक तथा असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक त्रिस्थानबन्धक और चतुस्थानबन्धक शानावरणीयकी अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें जीव हैं। द्वितीय स्थितिमें जीव हैं। इस प्रकार अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये। प्ररूपणा समाप्त हुई। , सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक तथा. असाता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक जीव शानावरणीयकी अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीय स्थितिमें जीव प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इस प्रकार अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये। . शंका-साता वेदनीयके विस्थानिक यवमध्यसे तथा असातावेदनीयके चतुः स्थानिक यवमध्यसे ऊपरकी स्थितियोंमें कहींपर भी जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव क्यों नहीं होते ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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