Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 346
________________ ४, २, ६, १८२. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३२९ जहण्णहिदीए जीवेहि समाणजवमज्झउवरिमट्टिदिजीवा पदरस्स असंखेजदिभागमेत्ता, तसरासिम्मि तिण्णिगुणहाणिगुणिदपलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण भागे हिदे सेडीए असंखेजदिमागमेत्तसेडीणमुवलंभादो । ण च एदेसु पदरस्स असंखेजदिभागमेत्तजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तद्धाणं गंण अद्धद्धेणे ज्झीयमाणेसु अवसाणे सेडीए असंखेजदिभागमेत्तं होदि, उवरिमअण्णोण्णन्मत्यरासिणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण पदरस्स असंखेजदिभागे भागे हिदे असंखेजसेडिमेत्तजीवोवलंभादो । उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ सेडिछेदणाहिंतो बहुगाओ ति के वि आइरिया भणंति । तेसिमाइरियाणमहिप्पारण सेडीए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा उवरि तप्पाओग्गासंखेजगुणहाणीयो गंतृण होति । ण च एवं, वक्खाणे अण्णोण्णभत्थरासिस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तुवलंभादो । पमाणपरूवणा गदा। अणंतरोवणिधाए सादस्स चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स विट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधी जीवा णाणावरणीयस्स जहण्णियाए ट्ठिदीए जीवा थोवा ॥ १८२॥ समाधान-उक्त शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि वे श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण नहीं होते हैं। कारण यह कि अपनी अपनी जघन्य स्थिति के जीवोंके समान यवमध्यसे उपरिम स्थितियोंके जीव प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि, त्रस राशिमें तीन गुणहानियोंसे गुणित पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जगश्रेणियाँ लब्ध होती हैं। परन्तु प्रतरके असंख्यातवें भाग मात्र इन जीवोंके के असंख्यातवे भाग मात्र अध्यान जाकर अर्ध-अर्ध भागसे हीन होनेपर अन्तमें उनका प्रमाण श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र रहता है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उपरिम अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रतरके असंख्यातवें भागमें भाग देनेपर असंख्यात श्रेणियों प्रमाण जीव उपलब्ध होते हैं। ऊपरकी नानागुणहानिशलाकायें श्रेणिके अर्धच्छेदोंसे बहुत हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उन आचार्यों के अभिप्रायसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण आष आगे तत्मायोग्य असंख्यात गुणहानियां जाकर हैं। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, इस व्याख्यानमें भन्योन्याम्यस्त राशि पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण पायी जाती है। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा साता वेदनीयके चतुःस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव, असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव तथा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीव स्तोक हैं ॥ १८२॥ १ अ-आ-का-प्रतिषु 'अद्धण' इति पाठः। २ साप्रती 'पदरस्स असंखेजदिभागे' इत्येतावान् पाठो नास्ति । आप्रतो असंखे. भागेण भागे हिदे, काप्रती असंखेज्ज दिमागे हिदे' इति पाठः। ३ तापतो 'विट्ठाणतिहाणबंधा' इति पाठः।४ योवा जाणियाए होति विसेसाहिओ दहिसयाई। छ. ११-४१ umraineermenter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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