Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

Previous | Next

Page 343
________________ ३१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १७८. - असादस्स बेठाणबंधा जीवा संस्थाणेणं णाणावरणीयस्स जहणियं द्विदिं बंधंति ॥ १७८ ॥ - असादबंधएसु बेट्ठाणबंधया जीवा अइविसुद्धा मंदकसाइत्तादो जहण्णट्ठिदिकारणपरिणामेहि संजुत्ता, तेण णाणावरणीयस्स जहणियं हिदि बंधति । जहण्णहिदिं बंधता वि ओघजहणियं हिदि ण बंधति त्ति जाणावण8 सत्थाणेण णाणावरणीयस्स जहणियं हिदि बंधति त्ति भणिदं । सत्याणेण णाणावरणीयस्स का जहण्णहिदी णाम ? असादेण सह और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे-'पार्थो धनुधरः' और 'नीलं सरोजम्' इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एषकार ॥ ७-८ - विशेषार्थ-विशेषणके साथ प्रयुक्त एवकार अयोगव्यवच्छेदका बोधक होता है। जैसे-'पार्थों धनुर्धरः एव ' अर्थात् पार्थ धनुषधारी ही है, इस वाक्यमें प्रयुक्त एवकार पार्थमें अधनुर्धरत्वकी आशंकाको दूरकर धनुर्धरत्वका विधान करता है। अतः वह अयोगव्यवच्छेदका बोधक है । विशेष्यके साथ प्रयुक्त एवकार अन्ययोगव्यवच्छेदका बोधक होता है । जैसे-'पार्थ एव धनुर्धरः' अर्थात् अर्जुन ही एक मात्र धनुर्धर है, इस काक्यमें प्रयुक्त एषकार अर्जुनमें जो अन्य धनुधरौंकी अपेक्षा सातिशय धनुर्धरत्व विद्यमान है उसका अन्य पुरुषों में निषेध करता है। अतएव वह भन्ययोगव्यवच्छेदका बोधक है। क्रियापदके साथ प्रयुक्त एवकार अत्यन्तायोगव्यवछेदका बोधक होता है। जैसे'नीलं सरोजं भवत्येव' अर्थात् सरोज नील होता ही है, इस वाक्यमें प्रयुक्त एवकार सरोजमें नीलत्वके अत्यन्ताभावका व्यवच्छेदक होनेसे अत्यन्तायोगव्यवच्छेदका बोधक है। (देखिये न्यायकुमुदचन्द्र भा. २ पृ. ६९३) : असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव स्वस्थानसे ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं ॥ १७८॥ __ असातबन्धकोंमें द्विस्थानबन्धक जीव अतिशय विशुद्ध होते हुए, मन्दकषायी होनेसे कि जघन्य स्थितिके कारणभूत परिणामोंसे संयुक्त हैं, इसीलिये वे ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं । जमन्य स्थितिको बाँधते हुए भी वे ओघ जघन्य स्थितिको नहीं बाँधते है, इस बातके शापनार्य 'स्वस्थानसे शानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बांधते हैं। ऐसा कहा गया है। शंका-स्वस्थानसे शानावरणीयकी जघन्य स्थिति किसे कहते हैं। १ अ-आ-काप्रतिषु 'संठाणेण' इति पाठः। २ तथा इतरासां परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां ये द्विस्थानगतं रस बध्नन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यां स्थितिं स्वस्थाने, स्वविशुद्धिभूमिकानुसारेणेत्यर्थः, बध्नन्ति । परावर्तमानाशुभप्रकृतिसत्कद्विस्थानगतरसबन्धहेतुविशुद्धयनुसारेण जघन्या स्थिति बध्नन्ति, न त्वतिजघन्या. मित्यर्थः। बघन्यस्थितिबन्धो हि ध्रुवप्रकृतीनामेकान्तविशुद्धौ सम्भवति, न च तदानीं परावर्तमानाशुभ. प्रकृतीनां बन्धा सम्भवन्ति । क. प्र. (म. टी.) १,९२. । ३ प्रतिषु ' संजुत्तं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410