Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 341
________________ ३१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १७५ सुहपयडीणमणुभागबंधो वडदि, असादादीणं असुहपयडीणमणुभागबंधो हायदि त्ति उत्तं होदि । सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियं द्विदि बंधंति ॥ १७५॥ णाणावरणग्गहणं जेण देसामासियं तेण णाणावरणादीणं धुवबंधीणमसुहपयडीणं सव्वासिं जहण्णयं हिदि बंधंति त्ति घेत्तव्वं । जे जे सादस्स चउहाणाणुभागबंधया जीवा ते ते णाणावरणादीणं जहणियं चेव हिदि बंधति त्ति णावहारण कीरदे, चउठाणबंधएसु णाणावरणादीणमजहण्णहिदीणं पि बंधदंसणादो। जेण कसाओ हिदिबंधस्स कारणं तेण मंदकसाइणो सादस्स चउठाणबंधया जीवा णाणावरणीयस्स जहणियं हिदिं बंधति त्ति भणिदं । सादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णअणुक्कस्सियं ठिदि बंधंति ॥ १७६ ॥ ण ताव उक्कस्सियं हिदिं बंधंति, असादजोग्गुक्कससंकिलेसेहि विणा णाणावरणीप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध बढ़ता है। संक्लेशकी हानि होनेपर साता आदिक शुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध बढ़ता है और असाता आदिक अशुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध हीन होता है, यह अभिप्राय है। सातावेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं ॥ १७५॥ चॅकिशानावरणका ग्रहण देशामर्शक है, अतः उससे मानावरणाविक वबन्धी सब अशुभ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं। ऐसा ग्रहण करना चाहिये । जो जो साता वेदनीयके चतुस्थानानुभागबन्धक जीव हैं वे वेशानाधरणादिकोंकी जघन्य ही स्थितिको बाँधते हैं, ऐसा अवधारण नहीं किया जा रहा है, क्योंकि, चतुःस्थानबन्धकों में झानावरणादिकोंकी अजघन्य स्थितियोंका भी बन्ध देखा जाता है। चूंकि स्थितिबन्धका कारण कषाय है, अतः सातावेदनीयके चतु:स्थानबन्धक मन्दकषायी जीव झानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं। ऐसा कहा गया है। साताके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं ॥ १७६ ॥ . ये जीव शानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, क्योंकि, असाताके योन्य १ये सर्वविशुद्धा शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रस बध्नन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनां जघन्या स्थिति निवर्तयन्ति । क.प्र. (म. टी.)१,९१.। २ ताप्रतो'णाणावरणीयादीणं' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'धुववड्डीणमसुह- ताप्रतो 'धुववट्टीए असुह-' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु 'णाणावहारणं' इति पाठः। ५ परावर्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानगतस्य रसस्य ये बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनामजघन्यां मध्यमा स्थिति अनन्ति । क. प्र. (म.टी.) १,९२.। ६ कापतो 'सायकस्स',अ-आ प्रत्योः सागरुकस्स' ताप्रतो 'सागर (१)क्कस्स-इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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