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छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६९. तदियं ठाणं, चउत्थो भागो हालाहलतुल्लो चउत्यहाणं । तत्य दोण्णि हाणाणि जम्हि अणुभागबंधे सो बिहाणो' णाम । तस्स बंधया जीवा बिट्ठाणबंधा । एवं तिहाणबंधाणं चउहाणबंधाणं च परूवणा कायव्वा । एवमणुभागबंधमस्सिदूण असादबंधा तिविहा होति ।
सव्वविसुद्धा सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवों ॥ १६९॥
सव्वेहिंतो विसुद्धा सव्वविसुद्धा । सादबिट्ठाण-तिहाणबंधएहिंतो सादस्स चउठाणबंधा जीवा सुळु विसुद्धा ति उत्तं होदि । एत्थे का विसुद्धदा णाम ? अइतिव्वकसायाभावो मदकसाओ विसुद्धदा त्ति घेत्तव्वा । तत्थ सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा सव्वविसुद्ध त्ति भणिदे सुट्ठमंदसंकिलेसा त्ति घेत्तव्वं । जहण्णहिदिबंधकारणजीवपरिणामो वा विसुद्धदा णाम ।
तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्टदरों ॥ १७०॥
सादचउहाणबंधएहिंतो सादस्सेव तिट्ठाणाणुभागबंधया जीवा संकिलिट्ठदरा, कसाउक्कड्डा त्ति भणिदं होदि ।
समान चौथे स्थान रूप है । उनमेंसे जिस अनुभागबन्धमें दो स्थान हैं वह द्विस्थान अनुभागबन्ध कहलाता है। उसको बांधनेवाले जीव द्विस्थानबन्धक कहे जाते हैं। इसी प्रकार त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार अनुभागबन्धका आश्रय करके असातबन्धक तीन प्रकारके होते हैं। . सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध हैं ॥ १६९ ॥
'सव्वेहितो विसुद्ध सव्वविसुद्धा ' इस प्रकार सर्वविशुद्ध पदमें तत्पुरुष समास है। साता वेदनीयके द्विस्थानबन्धकों और त्रिस्थानबन्धकोंकी अपेक्षा उनके चतुःस्थानबन्धक जीव अतिशय विशुद्ध हैं, यह उसका अभिप्राय है।
__ शंका-यहां विशुद्धतासे क्या अभिप्राय है ?
समाधान अत्यन्त तीव्र कषायके अभावमें जो मन्द कषाय होती है उसे विशुद्धता पदसे ग्रहण करना चाहिये।
सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध हैं, ऐसा कहनेपर 'वे अतिशय मन्द संक्लेशसे सहित हैं ' ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अथवा, जघन्य स्थितिबन्धका . कारण स्वरूप जो जीवका परिणाम है उसे विशुद्धता समझना चाहिये।
त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७०॥
साताके चतुःस्थानबन्धकोंकी अपेक्षा साताके ही त्रिस्थानानुभागबंधक जीव संक्लिष्ट तर हैं, अर्थात् वे उनकी अपेक्षा उत्कट कषायवाले हैं, यह अभिप्राय है। ........................................ - १ अ-आ-काप्रतिषु 'अणुमागबंधो सो विट्ठाणू' इति पाठः। २ ये सर्वविशुद्धा रस बघ्नन्ति । क. प्र. (म. टी.) १,९१. । ३ अप्रतो'एवं एत्थ' इति पाठः। ४ ये पुनर्मध्यमपरिणामास्ते त्रिस्थानगतं रसं बघ्नन्ति । क. प्र. (म. टी.) १,९१।
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