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छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १०२. दुवे अणियोगद्दाराणि होति, अणंतर-परंपरपरूवणं मोत्तूण तदियपरूवणाए अभावादो !)
अणंतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तयाणं णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेयणीयअंतराइयाणं तिण्णिवास. सहस्साणि आबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण तीसं सागरोवमकोडीयो ति ॥१०२॥
विगलिंदियपडिसेहढे पंचिंदियणिद्देसो कदो । विगलिंदियपडिसेहो किमटुं कीरदे ? तत्थ उक्कस्सहिदीए उक्कस्साबाहाए च अभावादो । णिसेयपरूवणाए कीरमाणाए उक्कस्सटिदिउक्कस्साबाहाणं च परूवणाए को एत्थ संबंधो ? ण केवलं एसा णिसेयपवणा चेव, किंतु उक्स्सटिदि-उक्कस्साबाहा-णिसेगाणं च परवणत्तादो । हिदिबंधट्ठाणपरूवणाए
परम्परा प्ररूपणाको छोड़कर तीसरी कोई प्ररूपणा नहीं है। ___अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निक्षित है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निक्षिप्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार वह उत्कर्षसे तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक उत्तरोत्तर विशेष हीन होता गया है ॥ १०२ ॥
विकलेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषेध करने के लिये सूत्र में पंचेन्द्रिय पदका निर्देश किया गया है।
शंका-विकलेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ?
समाधान-चूँकि उनमें उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट आबाधाका अभाव है, अतः उनका यहाँ प्रतिषेध किया गया है ।
शंका निषेकप्ररूपणा करते समय यहाँ उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट आवाधाकी प्ररूपणाका क्या सम्बन्ध है ?
समाधान यह केवल निषेकप्ररूपणा ही नहीं है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति, उत्कृष्ट आबाधा और निषेकोंकी भी यह प्ररूपणा है।
१ मोत्तूण सगमबाहे (इं) पढमाए ठिइए बहुतरं दव्यं । एतो बिसेसहीर्ण जाबुक्कोसं ति सव्वस्सि ॥ क. प्र. १,८३.। २ अ-आ-काप्रतिषु 'कुदो' इति पाठः।
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