Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ६, १११.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [ २५३
एत्थ अपजत्तसद्दो असणिपंचिंदियादिसु पादेक्कमहिसंबंधणिजो, तस्संबंधेण विणा पउणरुत्तियप्पसंगादो । असण्णिपंचिंदियअपजत्तप्पहुडि जाव बीइंदियअपजत्तो त्ति ताव एदेसिं द्विदीयो पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणाओ। बादरेइंदियअपजत्त-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्ताणमुक्कस्साउहिदीयो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणसागरोवममेत्ताओ । सेसं सुगमं । एवमणंतरोवणिधा समत्ता ।
. परंपरोवणिधाए पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं पज्जत्तयाणं अट्टणं कम्माणं जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सिया हिदी ति ॥.१११ ॥
विसेसहीणकमेण गच्छंता णिसेगा किं कत्थ वि दुगुणहीणा जादा ति पुच्छिदे असंखेज्जगोवुच्छविसेसे गंवण दुगुणहीणा जादा त्ति जाणावणटुं परंपरोवणिधा आगदा । पढमाणसेगादो प्पहुडि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाग गंतॄण दुगुणहीणा त्ति वयणेण कम्मटिदिअभंतरे असंखेजाओ दुगुणहाणीयो अस्थि त्ति णव्वदे । तं जहा--पलिदोवमस्स
सूत्र में प्रयुक्त अपर्याप्त शब्दका सम्बन्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदिक जीवोंमेंसे प्रत्येकके साथ करना चाहिये, क्योंकि, उसका सम्बन्ध न करनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है। असंझी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकसे लेकर द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक तक इन जीवोंकी स्थितियाँ पल्योपमके संण्यातवें भागसे हीन हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक जीवोंकी उत्कृष्ट स्थितियाँ पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सागरोपम प्रमाण हैं। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई।
परम्परोपनिधाकी अपेक्षा संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आठ कर्मोंका जो प्रथम समयमें प्रदेशाग्र है उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणहीन है, इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक दुगुणहीन दुगुणहीन होता चला गया है ॥ १११ ॥
विशेषहीनताके क्रमसे जाते हुए निषेक कहींपर दुगुण हीन भी हो जाते हैं अथवा नहीं होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तरमें कहते हैं कि असंख्यात गोपुच्छविशेष जाकर घे दुगुण हीन हो जाते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ परम्परोपनिधाका अवतार हुआ है। प्रथम निषेकसे लेकर पल्पोपमके असंख्यात बहुभाग जाकर दुगुण हीन होते हैं, इस वचनसे कर्मस्थितिके भीतर असंख्यात दुगुणहानियां हैं, यह जाना जाता है । यथा
१ पल्लासंखियभागं गंतुं दुगुणूणमेवमुक्कोसा । नाणंतराणि पल्लस्स मूलभागो असंखतमो ॥ क. प्र. १,८४. २ अ-आ-का प्रतिषु 'भागे' इति पाठः।
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