Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ६, ११२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणी
[२५५ णामा-गोदणाणागुणहाणिसलागाहिंतो चदुण्णं कम्माणं णाणागुणहाणिसलागाओ दुभागाहियाओ । मोहणीयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ आहुटगुणाओ । आउअस्स णाणागुणहाणिसलागाओ णामा-गोदणाणागुणहाणिसलागाणं संखेजदिभागमेतीयो। एवमसण्णीणमट्टण्णं कम्माणं पि तेरासियं काऊण णाणागुणहाणिसलागाओ उप्पाएयव्वाओ। असण्णीणमुक्कस्सहिदिबंधो' पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो । गुणहाणिअद्धाणं पि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तं चेव । किंतु गुणहाणिअद्धाणादो असण्णीणं उक्कस्साउहिदिबंधो असंखेजगुणो त्ति एत्थ वि असंखेजाओ णाणागुणहाणिसलागाओ लन्भंति त्ति घेत्तत्वं । एवमसण्णिपंचिंदियपजत्तणाणावरणादीणं णाणागुणहाणिसलागाओ तेरासिएण आणेदव्वाओ।
संपहि एत्य णाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणीए च पमाणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥ ११२ ॥
एत्य पलिदोवमस्स वग्गमूलमिदिवुत्ते पलिदोवमपढमवग्गमूलस्सेव गहणं कायव्वं, ण बिदियादीणं; पलिदोवमस्स वग्गमूले गहिदे पढमवग्गमूलस्सेव उप्पत्तिदंसणादो । ताणि च इस कारण नाम व गोत्रकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा चार कर्मे की नानागुणहानिशलाकायें द्वितीय भागसे अधिक हैं । मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकायें उनसे साढेतीन गुणी हैं। आयुकर्मकी नानागुणहानिशलाकायें नाम-गोत्रकी नानागुणहानिशलाकाओंके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं।
इसी प्रकार असंज्ञी जीवोंके आठों कौकी नानागुणहानिशलाकाओंको त्रैराशिक करके उत्पन्न कराना चाहिये । असंशी जीवोंके आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। गुणहानिअध्वान भी पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है। किन्तु गुणहानिअध्वानसे असंज्ञी जीवोंके आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है, अतएव यहाँ भी असंख्यात नाना गुणहानिशलाकायें पायी जाती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके ज्ञानावरणादिक कमौकी नानागुणहानिशलाकाओंको त्रैराशिक द्वारा ले आना चाहिये।
- अब यहां नानागुणहानिशलकाओं और गुणहानिके प्रमाणकी प्ररूपणाके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है ॥११२॥
यहां ‘पल्योपमका धर्गमूल ' ऐसा कहनेपर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलका ग्रहण करना चाहिये, द्वितीयादि वर्गमूलोंका नहीं; क्योंकि, पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको ग्रहण करनेपर प्रथम वर्गमूलकी ही उत्पत्ति देखी जाती है। वे वर्गमूल असंख्यात हैं, क्योंकि,
१अ-आ-काप्रतिषु'मुक्कस्साउद्विदिबंधो' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'उक्कस्साउद्विदिबंधो असंखेजगुणा ' इति पाठः। ३ एकस्मिन् द्विगुणवृद्धयोरन्तरे स्थितिस्थानानि पल्योपमवर्गमूलान्यसंख्येयानि। क. प्र. (मलय.) १,८८
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