Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ६, १६५. ] वेयणमहा हियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंध झव जाणपरूवणा
[ ३०९
पढमाए चूलियाए कदा चेव, पुणो तत्थ परूविदाणं संकिलेस - विसोहिट्ठाणाणं परूवणाण कायव्वा; पुणरुत्तदोसप्पसंगादो ण च कसा उदयद्वाणाणि मोत्तूण द्विदिबंधस्स कारणमत्थि, द्विदिअणुभागे कसायदो कुणदि त्ति वयणेण विरोहप्पसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा - असादबंधपाओग्गकसा उदयद्वाणाणि संकिलेसो णाम । ताणि च ही वाण होण बिदियट्ठिदिपहुडि विसेसाहिय कमेण ताव गच्छंत जाव उक्कस्सट्ठिदि त्ति । एदाणि च सव्वमूलपयडीणं समाणाणि, कसाएण विणा बज्झमाणमूलपaste अणुवलंभादो | सादबंधपाओग्गाणि कसाउद यहाणाणि विसोहिद्वाणाणि । एदाणि च उक्कस्सट्टिदीए थोवाणि होदूण दुचरिमंट्ठिदिप्पहुडिप्पगणणादो विसेसाहियकमेण ताव गच्छंति जाव जहण्णट्ठिदिति । संकिलेसट्ठाणेहिंतो किमहं विसोहिद्वाणाणि ऊणत्तमुवगयाणि १ ण, साभावियादो । एदाणि संकिलेसविसोहिद्वाणाणि णाम द्विदिबंधमूलकारणभूदाणि दोर्स द्विदिबंधट्ठाणपरूवणाए वण्णणा कदा । ण च एत्थ एदेसिं पुव्वं परूविदाणं परूवणा अत्थि जेण पुणरुत्तदोसो होजे, किंतु एत्थ द्विदिबंधट्टाणाणं विसेसपच्चयस्स द्विदिबंधज्झवसाणसण्णिदस्स परूवणा कीरदे । ण पुणरुत्तदोसो वि ढुक्कदे, पुव्वमपरूविदट्ठिदि
शंका — स्थितिबन्धस्थानोंके कारणभूत संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी प्ररूपणा प्रथम चूलिका में की ही जा चुकी है, अतः वहां वर्णित संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी प्ररूपणा फिरसे नहीं की जानी चाहिये; क्योंकि, वैसा करनेपर पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता हैं । कषायोदय स्थानोंको छोड़कर स्थितिबन्धका और कोई दूसरा कारण संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर " स्थिति व अनुभागको कषायसे करता है " इस आगम वाक्यके साथ विरोधका प्रसंग आता है ?
समाधान-यहां इस शंकाका उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है-असातावेदनीयके बन्ध योग्य कषायोदयस्थानोंको संक्लेश कहा जाता है । वे जघन्य स्थिति में स्तोक होकर आगे द्वितीय स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक विशेषाधिकता के क्रमसे जाते हैं। ये सब मूल प्रकृतियोंके समान हैं. क्योंकि, कषायके विना बंधको प्राप्त होनेवाली कोई मूल प्रकृति पायी नहीं जाती । सातावेदनीयके बन्ध योग्य परिणामोंको विशुद्धिस्थान कहते हैं । ये उत्कृष्ट स्थिति में स्तोक होकर आगे द्विचरम स्थितिसे लेकर जघन्य स्थिति तक गणनाकी अपेक्षा विशेष अधिकता के क्रमले जाते हैं ।
शंका- विशुद्धिस्थान संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा हीनताको क्यों प्राप्त हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि वे स्वभावसे ही हीनताको प्राप्त हैं।
ये संक्लेश-विशुद्धिस्थान स्थितित्रन्धके मूल कारणभूत हैं । इनका वर्णन स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा में किया गया है। यहां पूर्व में वर्णित इनकी पुनः प्ररूपणा नहीं की जा रही है, जिससे कि पुनरुक्त दोष होनेकी सम्भावना हो । किन्तु यहां स्थितिबंधाध्यबसान नामसे प्रसिद्ध स्थितिबन्धस्थानोंके विशेष प्रत्यय ( कारण ) की प्ररूपणा की जा रही है । अतः पुनरुक्त दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, यहां पूर्व में जिनकी प्ररूपणा नहीं की गयी है, उन बन्धाध्यवसानस्थानों की प्ररूवणा की गयी है ।
१ अ-भाप्रतोः ' जेण पुणरुत्तदोसो ण होज्ज' काप्रतो जे बुण बुतदोस्रो ण होज्ज' इति पाठः ।
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