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२४४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ६, १०३. सागरोवमाणि अणंतरोवणिधाए विसेसहीणकमेण गंवण तदणंतरउवरिमसमए भणतगुणहीणप्पदेसणिसेगप्पसंगादो, देसघादिपदेसपिंडो अणंतगुणहीणो त्ति कसायपाहुडे णिदिद्वत्तादो । ण च अणंतगुणहीणत्तं वोत्तुं जुत्तं, विसेसहीणं सव्वत्थ णिसिंचदि त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। ण विदियपक्खो वि, सव्वपयडीणं ठिदीयो अस्सिदृण पुध पुध णिसेयपरूवणापसंगादो। ण च एवं, विसेसहीणा विसेसहीणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीयो त्ति सुत्तेण सह विरोहादो ति ? एत्य परिहारो उच्चदे । तं जहा–ण ताव बिदियपक्खम्मि वुत्तदोसाणं संभवो, तदब्भुवगमाभावादो। ण पढमपक्खे वुत्तदोससंभवो वि, भिच्छत्तपदेसग्गं चेव घेतूण अणंतरोवणिधं परूवेमाणस्स तद्दोससमागमाभावादो । ण च सामण्णे विसेसो णत्यि, विसेसाणुविद्धाणं चेव सामण्णाणमुवलंभादो । ण च सामण्णे अप्पिदे विसेसप्पणा विरुज्झदे, विसेसवदिरित्तसामण्णाभावादो त्ति।
संपहि उवरिल्लीणं हिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे ति सुत्ते वक्खाणिजमाणे उक्कस्सियाए हिदीए बहुगं पदेसग्गं देदि, दुचरिमादिहिदीसु विसेसहीणं देदि त्ति जं भणिदं तमेदेण सुत्तेण सह कधं ण विरुज्झदे ? ण, गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण सा परूवणा
अपेक्षा विशेषहीम क्रमसे चालीस सागरोपम जाकर उससे अव्यवहित आगेके समयमें भनन्तगुणे हीन प्रदेशवाले निषेकका प्रसंग आता है, क्योंकि, [ सर्वघातीकी अपेक्षा] देशघाती प्रकृतियोंका प्रदेशपिण्ड अनन्तगुणा हीन है; ऐसा कसायपाहुड़में कहा गया है। परन्तु अनम्तगुणी हीनताका कथन उचित नहीं है, क्योंकि. सर्वत्र विशेषहीन देता है, इस सूत्रके साथ विरोध होता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि, समस्त प्रकृतियोंकी स्थितियोंका आश्रय करके पृथक् पृथक् निषेकोंकी प्ररूपणाका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम तक बे विशेषहीन विशेषहीन हैं, इस सूत्रके साथ विरोध आता है ?
समाधान यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-दूसरे प्रक्षमें दिये गये दोषोंकी सम्भावना तो है ही नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार ही नहीं किया गया है । प्रथम पक्षमें कहे हुए दोषोंकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि एकमात्र मिथ्यात्व प्रकृतिके प्रदेशपिण्डको ग्रहण करके अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करनेपर उक्त दोषोंका आना सम्भव नहीं है। सामान्यमै विशेष न हो, ऐसा तो कुछ है नहीं, क्योंकि, विशेषोंसे सम्बद्ध ही सामान्य पाये जाते हैं । सामान्यकी मुख्यता होनेपर विशेषकी विवक्षा विरुद्ध हो, सो भी नहीं है, क्योंकि, विशेषोंसे भिन्न सामान्यका अभाव है।
शंका-अब 'उधरिल्लीणं डिवीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे' इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए " उत्कष्ट स्थितिमें बहुत प्रदेशपिण्डको देता है, विचरम आदिक स्थितियों में विशेषहीन देता है" ग्रह जो कहा है वह इस सूत्रसे कैसे विरुद्ध नहीं होगा?
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु तदभवगमादो' इति पाठः ।
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