Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२४१ ]
खंडागमे. वेणा खंड
[ ४, २, ६, १०३. संपहि परूवणा - पमाणाणियोगद्दाराणि अणंतरोवणिधाए णिवदंति त्ति ताणि अभणिदूण मोहणीयस्स अणंतरोवणिधापरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तयाणं मोहणीयस्स सत्तवाससहस्साणि आबाहं मोनूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडि ति ॥ १०३ ॥
पुव्वं णाणावरणादीणं चदुष्णं कम्माणं तिण्णिवाससहस्साणि त्ति आबाहा परूविदा । संपहि मोहणीयस्स सत्तवाससहस्साणि आबाधा त्ति किमहं वुच्चदे ? ण, सगट्ठिदिपडिभागेण आबाधुपत्तदो । तं जहा — दससागरोवमकोडाकोडीणं वस्ससहस्समाबाहा लब्भदि । aaमेदं णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो । जदि दससागरोवमकोडाकोडीणं वस्ससहस्रमाबाहा
अब चूँकि प्ररूपणा और प्रमाण ये दो अनुयोगद्वार अनन्तरोपनिधाके अन्तर्गत हैं अतः उनको न कहकर मोहनीय कर्मकी अनन्तरोपनिधाके प्ररूपणार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं
पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके मोहनीय कर्मकी सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाय प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे सत्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपम तक विशेष हीन विशेष हीन होता गया है ॥ १०३ ॥
शंका - पहिले ज्ञानावरणादि चार कमौंकी आबाधा तीन हजार वर्ष प्रमाण कही जा चुकी है। अब मोहनीय कर्मकी सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा किसलिये बतलायी जा रही है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि आबाधाकी उत्पत्ति अपनी स्थिति के प्रतिभागसे होती है । यथा - दस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थितिकी आबाधा एक हजार वर्ष प्रमाण पायी जाती है ।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान वह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है ।
१ उदयं पडि सत्तण्हं आब्राहा कोडकोडि उवहीणं । वासस्यं तप्पडिभागेण य सेसद्विदीर्ण न्च ॥ गो. क. १५६. वास सहसम्बाहा कोडाकोडीद सगस्स सेसाणं । अणुवाओ अणुवट्टणगाउसु छम्मासिककोसो ॥ क. प्र. १,७५
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