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४, २, ६, १०४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा
[२४५ कदा, इमा पुण खविदगुणिद-घोलमाणजीवे अस्सिदूण कदा ति विरोहाभावादो।।
संपहि सगंतोक्खित्तपवणा-पमाणाणियोगद्दारमणंतरोवणिधमाउअस्स परूवण?मुत्तरसुत्तं भणदि
___पंचिंदियाणं सण्णीणं सम्मादिट्ठीणं वा मिच्छादिट्ठीणं वा पज्जत्तयाणमाउअस्स पुवकोडितिभागमाबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसे. सहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सण तेतीससागरोवमाणि त्ति ॥१०४॥
___एत्थ पुचकोडितिभागमाबाधं ति जं भणिदं तेण अण्णजोगववच्छेदो' ण कीरदे, किंतु अजोगववच्छेदों चेव; पुव्वकोडितिभागमादि कादृण जाव असंखेवद्धा त्ति ताव सव्वाबाधाहि तेत्तीससागरोवममेत्तहिदिबंधसंभवादो। जदि एवं तो उक्कस्साबाहाए चेव किमर्ट णिसेयपरूवणा कीरदे ? ण, आउअस्स उक्कस्साबाहा एत्तिया चेव होदि, उक्कस्साबाहाए सह
समाधान नहीं, क्योंकि, यह प्ररूपणा गुणित कर्माशिकका आश्रय करके की गई है, किन्तु यह प्ररूपणा क्षपित गुणित-घोलमान जीधोंका आश्रय करके की गई है, अतः उससे विरुद्ध नहीं है। __अब प्ररूपणा और प्रमाण अनुयोगद्वारोंसे गर्भित आयुकर्मकी अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
पंचेन्द्रिय संज्ञी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मकी एक पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रमाण आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशपिण्ड दिया गया है वह बहुत है, द्वितीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड दिया गया है वह उससे विशेष हीन है, तृतीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड दिया गया है वह विशेष हीन है; इस प्रकार उत्कर्षसे तीस सागरोपम तक वह विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०४॥ ___ यहां सूत्रमें 'पुवकोडितिभागमाबाधं ' यह जो कहा गया है उससे अन्ययोगव्यवच्छेद ( अभ्य आबाधाओंकी व्यावृत्ति) नहीं किया जा रहा है, किन्तु अयोगव्यवच्छेद ही किया जा रहा है। क्योंकि, पूर्वकोटिके त्रिभागको आदि लेकर असंक्षेपाचा तक समस्त भाषाधाओंके साथ तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुकर्मका बन्ध सम्भव है।
शंका-यदि ऐसा है तो उत्कृष्ट आवाधामें ही किलिये निषेकप्ररूपणाकीजाती है।
समाधान-नहीं, क्योंकि आयु कर्मकी उत्कृष्ट आबाधा इतनी ही होती है तथ, उस्कृष्ट भावाधाके साथ तेतील सागरोपम मात्र उत्कृष्ट स्थिति भी होती है, यह बतलानेके
आ-काप्रतिषु 'अण्णजोगववएसो' इति पाठः । २विशेषणसंगतवकारअयोगव्यच्छेदबोधकः, यथा शंखः पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदो नाम उद्देश्यतावच्छेदक-समानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् ।xxx विशेष्यसकतवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा पार्थ एव घमुर्धर इति । अन्ययोगव्यवच्छेदो माम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः । सप्त, त. पृ. २५-२६.
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