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४, २, ६, १०८. ]
dयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा
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रचणापरूविदा पुव्वकोडीदो रूवूणादिकमेण परिहीणा वि पदेसरचणा अस्थि, अण्णा उक्करसेण जाव पुव्वकोडि त्ति गिद्देसाणुववत्तदो । एदे पुव्वकोडीदो अन्भहियमाउअं किण बंति ? सहावदो अचंताभावेण निरुद्धसत्तित्तादो वा । एदेसिमाबाहा अंतोमुहुत्तमेत्ता चेवे ति किमहं वुच्चदे ? ण, एदेसिमंतोमुहुत्तआउआणं सगआउअतिभागे अंतोमुहुत्तभावस्सेव उवलंभादो | सेसं सुगमं ।
पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिंदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं बादरएइंदियपज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणं आउअवज्जाणं अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तृण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सस्स सागरोवमसदस्स सागरोवमपण्णासाए सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमस्स तिण्णि- सत्तभागा सत्त- सत्तभागा
हीन भी प्रदेशरचना होती है, क्योंकि, अन्यथा ' उक्कस्सेण जाव पुव्वकोडि त्ति ' यह निर्देश घटित नहीं होता ।
शंका- ये जीव पूर्वकोटिसे अधिक आयुको क्यों नहीं बाँधते हैं ?
समाधान — उक्त जीव स्वभावतः उससे अधिक आयुको नहीं बाँधते हैं, अथवा अत्यन्ताभाव से निरुद्धशक्ति होनेसे वे अधिक आयुका बन्ध नहीं करते हैं ।
शंका- इन जीवोंके उक्त कर्मोंकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त मात्र ही किसलिये कही जाती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि इन जीवोंकी आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होती है, अतएव अपनी आयुके त्रिभागमें अन्तर्मुहूर्तता ही पायी जा सकती है।
शेष कथन सुगम है ।
पंचेन्द्रिय असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय जीवोंके आयु कर्मसे रहित सात कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है; इस प्रकार विशेषहीन विशेषहीन होकर उत्कर्षसे हजार सागरोपमोंके, सौ सागरोपमोंके, पचास सागरोपमोंके और पच्चीस सागरोपमोंके चार कर्मों, मोहनीय एवं नाम - गोत्र कर्मोंके क्रमसे सात भागोंमेंसे परिपूर्ण तीन भाग ( ३७ ), सात भाग ( ७।७ )
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