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२, ६, ५१.] वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा
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बहुवाणि ति गुरुवसादो वा हायमाणकसाउदयद्वाणाणं विसोहिभावो णत्थि त्ति वदे | ( सम्मत्तप्पत्तीए सादद्वाणपरूवणं' कादूण पुणो संकिलेस - विसोहीणं परूवणं कुणमाणा वक्खाणाइरिया जाणावेंति जहा हायमाणकसा उदयद्वाणाणि चेव विसोहिस णिदाणि ति भणिदे होदु णाम तत्थ तथाभावो, दंसण-चरितमोहक्खवणोवसामणासु पुव्विलसमए उदयमागद-अणुभागफद्दएहिंतो अनंतगुणहीणफद्दयाणमुदएण जादैकसायउदयद्वाणस्स विसो - हित्तमवगमादोणच एस नियमो संसारावत्थाए अत्थि, तत्थ छव्विवड्डि-हाणीहि कसाउदयद्वाणार्णं उत्पत्तिदंसणादो । संसारावत्याए वि अंतोमुहुत्तमणंतगुणहीणकमेण अणुभागफद्दयाणं उदओ अस्थि त्ति वुत्ते होदु, तत्थ वि तथाभावं पडुच विसोहित्तन्भुवगमादो । ण च एत्थ अनंतगुणहीणफद्दयाणमुदएण उप्पण्णकसा उदयद्वाणं विसोहि त्ति घेप्पदे, एत्थ एवंविहविवक्खाभावादों । किंतु सादबंधपाओग्गकसा उदयद्वाणाणि विसोही, असादबंधपाओग्गकसा उदयद्वाणाणि संकिलेसो त्ति घेत्तव्वमण्णहा बिसोहिडाणाणमुक्कस्सट्ठिदीए
होते हैं, इस गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि हानिको प्राप्त होनेवाली कषायके उदयस्थानोंके विशुद्धता सम्भव नहीं है ।
शंका-सम्यक्त्वोत्पत्ति में सातावेदनीयके अध्वानकी प्ररूपणा करके पश्चात् क्लेश व विशुद्धिकी प्ररूपणा करते हुए व्याख्यानाचार्य यह ज्ञापित करते हैं कि हानिको प्राप्त होनेवाले कषायके उदयस्थानोंकी ही विशुद्धि संज्ञा है ?
समाधान - ऐसी आशंका होनेपर उत्तर देते हैं कि वहाँपर वैसा कहना ठीक है, क्योंकि, दर्शन और चारित्र मोहकी क्षपणा व उपशामना में पूर्व समय में उदयको प्राप्त हुए अनुभागस्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुभागस्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न हुए कषायोदयस्थानके विशुद्धपना स्वीकार किया गया है । परन्तु यह नियम संसारावस्था में सम्भव नहीं है, क्योंकि, वहाँ छह प्रकारकी वृद्धि व हानियोंसे कषायोदयस्थानकी उत्पत्ति देखीजाती है ।
शंका-संसारावस्था में भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणे हीन क्रमसे अनुभागस्पर्धकों का उदय है ही ?
समाधान — संसारावस्था में भी उनका उदय बना रहे, वहाँ भी उक्त स्वरूपका आश्रय करके विशुद्धता स्वीकार की गई है । परन्तु यहाँ अनन्तगुणे हीन स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न कषायोदयस्थानको विशुद्धि नहीं ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि, यहाँ इस प्रकारकी विवक्षा नहीं है । किन्तु सातावेदनीयके बन्धयोग कषायोदय स्थानोंको विशुद्धि और असातावेदनीय के बन्धयोग्य कषायोदयस्थानोंको संक्लेश ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना उत्कृष्ट स्थितिमें विशुद्धिस्थानोंकी स्तोकताका विरोध है ।
१ प्रतिषु ' सादद्वाणं परूवणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' जाव' इति पाठः । ३ अ आ का प्रतिषु ' तत्थाभावं ' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' एवं विधविवक्खाभावादो' इति पाठः ।
छ. ११-२७.
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