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४, २, ६, ६५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [ २२७
___ बेइंदियादि जाव असण्णिपचिंदियो त्ति जहाकमेण मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो पणुवीससागरोवमाणि, पण्णासंसागरोवमाणि, सागरोवमसदं, सागरोवमसहस्सं पलिदोवमस्स संखेजदिभागेणे ऊणयं । णाणावरणादिचदुण्हं कम्माणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि पणुवीस. पण्णास-सद-सहस्ससागरोवमाणं तिण्णिसत्त भागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणया । एवं णामा-गोदाणं । णवरि बे-सत्त भागा ति वत्तव्वं । आउअस्स जहण्णहिदिबंधो खुद्दाभवग्गहणं जहण्णाबाहाए अब्भहियं ।
___ उक्कस्सटिदिबंधो बेइंदिएसु मोहणीयस्स पणुवीसं सागरोवमाणि । चदुण्णं कम्माणं पणुवीससागरोवमाणं तिण्णि-सत्त भागा । णामा-गोदाणं पणुवीससागरोवमाणं बे-सत्त भागा २५-१० । ५। ७, ७।१। ७ । आउअस्स उक्कस्सहिदी पुव्वकोडी । तेइंदियस्स जहाकमेण पण्णासंसागरोवमाणं सत्त-सत्त भागा तिण्णि-सत्त भागा बे-सत्त भागा उक्कस्सहिदी होदि ५०-२१।३।७, १४।२।७। आउअस्स पुवकोडी । चउरिंदि
द्वीन्द्रियसे लेकर असंशी पंचेन्द्रिय तक यथाक्रमसे मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध पल्पोपमके संख्यातवें भावसे हीन पच्चीस सागरोपम, पचास सागरोपम, सौ सागरोपम और हजार सागरोपम प्रमाण होता है। मानावरणादि चार कर्मोंकी जघन्य स्थितिबन्धका । भी कथन इसी प्रकारसे करना चाहिये। विशेष इतना है कि उनका जघन्य स्थितिबन्ध द्वीन्द्रियादिकोंके क्रमशः पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन पच्चीस, पचास, सौ और हजार सागरोपमोंके तीन सात भाग (3) प्रमाण होता है - [२५४, ५०x४, १००४है; १०००४ सा.] । इसी प्रकार नाम व गोत्र कर्मके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि . यहां दो सात भाग कहना चाहिये [२५४, ५०x४, १००x४, १०००४ सागरोपम (पल्पोपमके संख्यातवें भागसे हीन)। आयुका जघन्य स्थितिबन्ध जघन्य आवाधासे सहित क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है।
द्वीन्द्रिय जीवों में मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पच्चीस सागरोपम प्रमाण होता है । चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पच्चीस सागरोपमोंके तीन सात (3) भाग प्रमाण होता है-[३० को. सा. X २५ -३४३५=१०५ सागरोपम । नाम गोत्रका उत्कृष्ट हाता
७०को. सा. स्थितिबन्ध पच्चीस सागरोपमोंके दो सात ( 3 ) भाग प्रमाण होता है२० को. सा.x२५ २४२५
२५-७१ सागरोपम ।आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि प्रमाण होता है।
श्रीन्द्रिय जीवके मोहनीय, शानावरणादिक एवं नाम-गोत्र कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः पचास सागुरोपमोंके सात-सात भाग (७), तीन-सात भाग (3) और दो-सात भाग (3) प्रमाण है-५०x४-५०; ५०x२१३, ५०x१४ । आयुकी उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्वकोटि प्रमाण होती है।
१ प्रतिषु 'पण्णारस' इति पाठः। २ प्रतिषु ' असंखेजदिभागेण' इति पाठः। ३ एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवरबंधो। इगिविगलाणं अवरं पल्लासंखूण-संखूणं ॥ जदि सत्तरिस्स एत्तियमेत्तं कि दि तीसियादीण । इदि संपाते खेसाणं इगि विगलेसु उभयठिदी। गो, क. १४५. ४ ष. खं. पु.६ पृ. १९५.
७० को.सा.
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3 टास्चिातच एक पूचकाटि
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