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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ६, ६५.
तिणि- सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया । णामा - गोदाणं [ जहण्णद्विदी ] सागरोवमस्स बे-सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया । आउअस्स जहणहिदी खुद्दाभवग्गहणं' ।
एदेसिमुक्कस्सट्ठिदिपमाणं उच्चदे । तं जहाँ — मोहणीयस्स एगं सागरोवमं [ १ ] णाणावरणीय - दंसणावरणीय वेदणीय-अंतराइयाणं सागरोवमस्स तिष्णि - सत्त भागा पडिवुण्णा [३७] णामा-गोदाणं बे-सत्त भागा पडिवुण्णा [ २७ ] । णवरि सुहुमेइंदियपजत्तापज्जत्त-बाद्रेइंदियअपञ्जत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिबंधो बादरेइंदियपज्जत्तस्सुक्कस्सडिदिबंधादो' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणो । आउअस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो पुव्वकोडी सग-सगउक्कस्साबाहाए अहिया ।
स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागों में से तीन भाग ( 3 ) प्रमाण है । नाम और गोत्रकी जघन्य स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागों में दो भाग ( 3 ) प्रमाण है । आयुकी जघन्यु स्थिति क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है ।
अब इन चारों एकेन्द्रियोंके उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण कहते हैं । यथा - - मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एक ( १ ) सागरोपमं प्रमाण है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थिति एक सामरोपमके सात भागों में से परिपूर्ण तीन प्रमाण हैं । विशेषार्थ - एकेन्द्रिय से लेकर असंशी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके आयुको छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति मोहनीयके आधार से निम्न प्रकार त्रैराशिकके द्वारा निकाली जाती है-यदि सप्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले मोहनीय ( मिथ्यात्व ) कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रियके एक सागर प्रमाण बंधती है तो उसके तीस कोड़कोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी उत्कृष्ट बंधेगी, ३० को. को. सा. x१ - सागरोपम । इसी प्रकारसे द्वीन्द्रियादि जीवोंके ७० को को. सा. भी समझना चाहिये । मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका द्वीन्द्रियके २५ सागरोपम, त्रीन्द्रियके ५० सा. चतुरिन्द्रयके १०० सा. और असंज्ञी पंचेन्द्रियके १००० सा. प्रमाण बंध है ।
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नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम सात भागोंमेंसे परिपूर्ण दो भाग २० को. सा. x १ प्रमाण है । विशेष इतना है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त ७० को. सा. अपर्याप्त तथा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन होता है । आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अपनी अपनी उकृष्ट आबाधाले अधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण है ।
१ तिर्यगायुषो मनुष्यायुषश्च जघन्या स्थितिः क्षुल्लकभवः । तस्य किं मानमिति चेदुच्यते-आवलिकानां द्वे शते षट्पंचशदधिके । क. प्र. ( मलय. ) १, ७८. २. ताप्रतौ ' एदेसिमुकस्सट्ठिदिपमाणं उच्चदे | तं जहा ' इत्येतावानयं पाठस्त्रुटितो जातः । ३. आ-काप्रस्यो: ' पज्जत्तस्सुक्कस्सबंधो', ताप्रतौ ' पज्जतुक्कसद्विदिबंघो ' इति पाठः ।
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