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४, २, ६, ६५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२२५
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । सेसं सुगमं ।
बध्यते इति बन्धः, स्थितिश्चासौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानमवस्थाविशेषः स्थितिबंधस्थानम् । एदमत्थपदमस्सिदण परवणट्टमुवरिमसुत्तकलाओ आगदो
सव्वत्थोवो संजदस्स जहण्णओ द्विदिबंधो ॥६५॥
जहण्णुक्कस्सहिदिपवणा किमट्ठमागदा ? हिदिबंधट्ठाणाणि एत्तियाणि होति त्ति पुव्वं परूविदाणि । संपहि तत्थ एगेगहिदिबंधहाणमेत्तिए समए घेतूण होदि त्ति परूवणठमागदा । एत्थ जहण्णुक्कस्सटिदिपरूवणाए संतपमाणाणियोगद्दारे मोत्तूण अप्पाबहुगं चेव किमटुं परूविदं ? ण एस दोसो, परूवणा-पमाणाविणाभाविअप्पाबहुअं त्ति कटु तदपस्वणादो। तम्हा अप्पाबहुअंतभूदपरूवणा-पमाणाणि वत्तइस्सामो। तं जहाचोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थि जहण्णुक्कस्सहिदीयो । परूवणा गदा।।
चदुण्हं पि एइंदियाणं मोहजहण्णहिदी सागरोवमं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणयं । णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं जहण्णहिदी सागरोवमस्स
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। शेष कथन सुगम है।
जो बांधा जाता है वह बन्ध है । स्थितिस्वरूप जो वन्ध वह स्थितिबन्ध । [इस प्रकार यहां कर्मधारयसमास है।] उसके स्थान अर्थात् अवस्थाविशेषका नाम स्थितिबन्धस्थान है । इस अर्थपदका आश्रय करके प्ररूपणा करने के लिये आगेका सूत्रकलाप प्राप्त होता है
संयत जीवका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है ॥ ६५ ॥ शंका-जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिकी प्ररूपणाका अवतार किसलिये हुआ है ?
समाधान-स्थितिबन्धस्थान इतने होते हैं, यह पूर्वमें कहा जा चुका है। अब उनमेंसे एक एक स्थितिबन्धस्थान इतने समयोंको ग्रहण करके होता है, यह बतलानेके लिये इस प्ररूपणाका अवतार हुआ है।
___ शंका-इस जघन्य-उत्कृष्टस्थितिप्ररूपणामें सत् (प्ररूपणा ) और प्रमाण अनुअनुयोगद्वारोंको छोड़कर एक मात्र अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा किसलिये की गई है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अल्पबहुत्व प्ररूपणा और प्रमाणका अविनाभावी है, ऐसा जानकर उन दोनों अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा यहां नहीं की.ई है। . इसी कारण अल्पबहुत्वके अन्तर्गत होनेसे प्ररूपणा और प्रमाण अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं । यथा--चौदह जीवसमासोंके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितियां हैं। प्ररूपणा समाप्त हुई।
चारों ही एकेन्द्रियोंके मोहकी जघन्य स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम प्रमाण है । शानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकी जघन्य
१ तत्र सूक्ष्मसापरायस्य जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः (१)। क. प्र. (मलय) १,८०-८१. २ अप्रतौ 'पमाणविणाभावि' इति पाठः।
छ. ११-२९
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