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४, २, ६, ६८.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणारूवणा [२२९ उवरि किण्ण घेप्पदे ? ण, तत्थ कसायाभावेण हिदिबंधाभावादो । खीणकसाए वि एगसमइया हिदी - अंतोमुहुत्तमेत्तसुहुमसांपराइयचरिमहिदिबंधादो असंखेजगुणहीणा लब्भदि । सा किण्ण घेप्पदे ? ण, बिदियादिसमएसु अवट्ठाणस्स हिदि त्ति ववएसादो । ण च उप्पत्तिकाले हिदी होदि, विरोहादो।
बादरेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ टिदिबंधो
असंखेज्जगुणो ॥६६॥ - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? अंतोमुहुत्तमेत्तसंजदजहण्णद्विदिबंधेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणसागरोवममेत्तबादरेइंदियपजत्तजहण्णटिदिबंधे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेजदिभागुवलंभादो ।
सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहियो ॥ ६७॥ केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । बादरेइंदियअपत्तजयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ६८ ॥ शंका"इससे ऊपरके स्थितिबन्धको जघन्य स्वरूपसे क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान नहीं, क्योंकि ऊपर कषायका अभाव होनेसे स्थितिबन्धका अस्तित्व भी नहीं है।
शंका-क्षीणकषाय गुणस्थान में भी एक समयवाली स्थिति सुक्ष्मसाम्परायिकके अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तिम स्थितिबन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हीन पायी जाती है । उसका ग्रहण क्यों नहीं करते? .
समाधान-नहीं, क्योंकि, द्वितीयादि समों में स्थित रहनेका नाम स्थिति है। उत्पत्ति समयमें कहीं स्थिति नहीं होती, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ॥६६॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्पोपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, संयतके अन्तर्मुहूर्त परिमित स्थितिबन्धका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके पल्योपमके असंख्यातमें भागसे हीन सागरोपम प्रमाण जघन्य स्थितिबन्थमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है।
उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ६७॥ वह कितने प्रमाणसे अधिक है ? पल्योपमके असंख्यात भाग मात्रसे यह अधिक है . उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ६८ ॥
१ ततो बादरपर्याप्तकस्य जघन्यः स्थितिबन्धोऽसखेयगुणः (२)। क. प्र. (मलय,) १,८०-८१. (अतोऽग्रे वक्ष्यमाणमिदं सर्वमेवाल्पबहुस्वमत्र यथाक्रमं षट्त्रिंशत्पदेषुपलभ्यते).
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