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२२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ६, ६५. एसु सागरोवमसदस्स सत्त-सत्त भागा तिण्णिसत्त भागा बे-सत्त भागा पडिवुण्णा १००४२।६।७; २८।४।७ । आउअस्स पुवकोडी । असण्णिपंचिंदिएसु सागरोवमसहस्सस्स सत्त-सत्त भागा तिण्णि-सत्त भागा बे-सत्त भागा उक्कस्सहिदिबंधो १०००-४२८ । ४।७, २८५। ५। ७। आउअस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो'। सण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स सत्तण्णं कम्माण्णं जहण्णटिदिबंधो उक्कस्सटिदिबंधो च अंतो कोडाकोडीए । सण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स वेयणीयस्स जहण्णटिदिबंधो बारस मुहुत्ता । णामागोदाणमट्ठमुहुत्ता । सेसाणं कम्माणं भिण्णमुहुत्तं । उक्कस्सहिदिबंधी मोहणीयस्स सत्तरि, चदुण्णं कम्माणं तीसं, णामागोदाणं बीसं सागरोवमकोडीयो। आउअस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं पमाणपरूवणा गदा ।
संपहि एदेसि हिदिबंधट्ठाणाणं अप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवो संजदस्स जहण्णटिदिबंधो । एत्थ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदस्स चरिमद्विदिबंधो जहण्णो त्ति घेत्तव्यो।
चतुरिन्द्रिय जीवों में मोहनीय, शानावरणादिक एवं नाम गोत्र कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सौ सागरोपमोंके सात-सात भाग, तीन-सात भाग और दो-सात भाग प्रमाण होता है-१००, ४२७, २८ । आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि प्रमाण होता है।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें उपर्युक्त कौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमशः एक हजार सागरोपमोंके सात-सात भाग, तीन-सात भाग और दो-सात भाग प्रमाण होता है१०००, ४२८३, २८५७ । आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण होता है।
संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवके आयुके विना सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण होता है। संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है । नाम एवं गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध उसके आठ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध उसके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । उक्त जीवके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपम, ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोडि सागरोपम और नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ि सागरोपम प्रमाण होता है। आयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
अब इन स्थितिबन्धस्थानोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं । यथा-संयतका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। यहां सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतके अन्तिम स्थितिबन्धको जघन्य ग्रहण करना चाहिये।
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चाहिय।
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१ आउचउक्कुक्कोसो पल्लासंखेजभागममणेसु । सेाण पुव्वकोडी साउतिभागो आबाहा सिं॥ क. प्र. १, ७४. २ अ-आ-का-प्रतिषु 'हिदिबंधट्टाणं' इति पाठः।
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