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छक्खंडागमे वैयणाखंड (१, २, ६, २१. केवलिम्हि अण्णं सांतरमपुणरुत्तट्ठाणं, पदरगदकेवलिडिदिसंतादो कवाडगदकेवलिहिदिसंतस्स असंखेज्जगुणतुवलंभादो। तदो दंडगदकेवलिम्हि सांतरमण्णमपुणहत्तट्ठाणं, कवाडगदकेवलिडिदिसंतादो दंडगदकेवलिहिदिसंतस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। दंडाहिमुहकेवलिम्हि अण्णं सांतरमपुणरुत्तट्ठाणं, दंडगदकेवलिडिदिसंतादो एदम्हि असंखेज्जगुणहिदिसंतदंसणादो। एत्तो प्पहुडि हेट्ठा णिरंतरहाणाणि ताव उप्पज्जति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । कुदो ? एत्यंतरे द्विदिकंदयाभावादो। एत्तो हेट्ठा णिरंतर-सांतरकमेण गाणावरणीयविहाणेण अजहण्णहाणपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो।
एवं आउअ-णामागोदाणं ॥ २१ ॥
जहा वेयणीयस्स जहण्णाजहण्णसामित्तपरूवणा कदा तहा एदेसि पि जहण्णाजहण्णसामित्तं वत्तव्व, विसेसाभावादो । णवरि आउअस्स अजहण्णसामित्तपरूवणम्मि जो विसेसो तं वत्तइस्सामो । तं जहा- भवसिद्धियदुचरिमसमए एगमजहण्णट्ठाणं । पुणो तिचरिमसमए बिदियमजहण्णहाणं । पुणो चदुचरिमसमए तदियमजहण्णट्ठाणं । एत्थ
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केवलीमें अन्य सान्तर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, प्रतरगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे कपाटगत केवलीका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा पाया जाता है। पश्चात् दण्डसमुद्घात. गत केवल में अन्य सान्तर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, कपाटसमुद्घातगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे दण्डसमुद्घातगत केवलीका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा पाया जाता है । दण्डसमुद्घातके अभिमुख हुए केवलीमें अन्य सान्तर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, दण्डसमुद्घातगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे उसके अभिमुख हुए केवलीमें असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व देखा जाता है। यहांसे लेकर नीचे क्षीणकषायके अन्तिम समय तक निरन्तर स्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस बीचमें स्थितिकाण्डकका अभाव है। इसके नीचे निरन्तर और सान्तर क्रमसे शानावरणीयके विधानके अनुसार अजघन्य स्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है।
इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र कर्मोंके जघन्य एवं अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा है ॥ २१ ॥
जैसे घेदनीय कर्मके जघन्य व अघजन्य स्वामित्त्वकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही इन तीनों कमौके जघन्य व अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। विशेष इतना है कि आयु कर्मके अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणामें जो कुछ विशेषता है उसे कहते हैं। यथा- भव्यसिद्धिक रहनेके द्विचरम समयमें एक भषजन्य स्थान होता है। पश्चात् त्रिचरम समयमें द्वितीय अजघन्य स्थान होता है। चतुधरम समयमें तृतीय भजघन्य स्थान होता है। यहां दुगुणी वृद्धि
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