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४, २, ६, ५१.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२०५ संखेज्जगुणो । द्विदिबंधडाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स हिदिबंधट्टाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सम्वत्थोवा सुहुमेइंदियअपजत्तयस्सं संकिलेसविसोहिट्ठाणाणि ॥५१।।)
स्थितयो बध्यन्ते एभिरिति करणे घजुत्पत्तेः कर्मस्थितिबन्धकारणपरिणामानां स्थितिबन्ध इति व्यपदेशः । तेषां स्थानानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्धस्थानानि । संपहि तेसि हिदिबंधकारणपरिणामाणं परूवणा कीरदे । किमहमेदेसिं परूवणा कीरदे ? कारणावगमदुवारेण कम्मट्टिदिकजावगमणटं । ण च कारणे अणवगए कज्जावगमो सम्मत्तं पडिवजदे, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।
एत्य परूवणा पमाणमप्पाबहुअमिदि तिण्णि अणियोगद्दाराणि भवंति । सुत्ते
अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥५१॥ - जिनके द्वारा स्थितियां बंधती हैं ' इस विग्रह के अनुसार करण अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय होनेसे स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंको स्थितिबन्ध कहा गया है। उनकी अवस्थाविशेषोंका नाम स्थितिबन्धस्थान हैं । अब स्थितिवन्धके कारणभूत उन परिणामोंकी प्ररूपणा करते हैं।
शंका-इनकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है ?
समाधान-कारणपरिक्षानपूर्वक कर्मस्थितिके रूप कार्यका परिज्ञान करानेके लिये उनकी प्ररूपणा की जा रही है। कारण कि जबतक कार्योत्पादक हेतुका परिक्षान : हो जाता, तब तक कार्यका परिज्ञान यथार्थताको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दूसरी जगह बैसा पाया नहीं जाता है।
यहां प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार हैं।
१ अ-आ-काप्रतिषु ‘पजत्तयस्स' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु 'घञ्युत्पत्ते' इति पाठः ।
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