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४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणपरूवणां [१५३ टिदिबंधो संखेज्जगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ।
सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स सव्वत्थोवो आउअस्स जहण्णओ हिदिबंधो । हिदिबंधहाणविसेसो असंखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स टिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्टाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ।
एवं सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स वि सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्वं । णवरि आउअस्स हिदिबंधहाणविसेसो संरवेजगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेज्जगुणो । उवरि पुव्वं व । एवं सत्याणप्पाबहुगं समत्तं ।
जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
___ संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम व गोत्र कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार काँका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
इसी प्रकार संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके भी स्वस्थानअल्पबहुत्व कहना चाहिये। विशेष इतना है कि आयु कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । आगे पूर्वके समान ही कहना चाहिये। इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
१ ताप्रतावतः प्राक् [ उक्क ट्ठिदिबंधो विसेसाहियाणि ] इत्यधिकः पाठः कोष्ठकस्थः समुपलभ्यते । छ. ११-२०.
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