Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३६) छक्खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, ५, २१. यस्स सुहमणिगोदजीवस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा । एत्थ उवसंहारो उच्चदेएगउस्सेहघणंगुलं ठविय तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे णाणावरणीयस्स जहण्णक्खेतं होदि ?
तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ २१ ॥
तत्तो जहण्णक्खेत्तादो वदिरित्ता खेत्तवेयणा अजहण्णा । सा च बहुपयारा । तासिं सामित्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा- पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं विरलेदूण घणंगुलं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं पावदि । पुणो एदिस्से उवरि पदेसुत्तरोगाहणाए तत्थेव द्विदो अजहण्ण-जहण्णक्खेत्तस्स सामी। एत्थ काए वड्डीए वड्डिदो बिदियक्खेत्तवियप्पो ? असंखेज्जभागवड्ढाएँ । तं जहा- जहण्णोगाहणं हेट्ठा विरलेदूण उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे एगागासपदेसो पावदि । पुणो एत्तियमेत्तेण अहियमुवरिमएगरूवधरिदमिच्छामो त्ति रूवाहियहट्ठिमविरलणाए जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए सरिसच्छेदं कादूण सोहिदे अजहण्ण-जहण्णोगाहणाए भागहारो होदि ।
जीवके शानावरणीयकी वेदना क्षेत्रसे जघन्य होती है। यहां उपसंहार कहते हैंएक उत्सेधघनांगुलको स्थापित करके तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर ज्ञानावरणीयका जघन्य क्षेत्र होता है।
उससे भिन्न अजघन्य वेदना होती है ॥ २१ ॥ __ उससे अर्थात् जघन्य क्षेत्रसे भिन्न क्षेत्रवेदना अजघन्य है। वह अनेक प्रकार है। उन बहुविध क्षेत्रवेदनाओंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार हैपल्योपमके असंख्यातवें भागका विरलन करके धनांगुलको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है। पश्चात् इसके आगे एक प्रदेश अधिक अवगाहनासे वहां (निगोद पर्यायमें) ही स्थित जीव अजघन्य क्षेत्रवेदनाके जघन्य स्थानका स्वामी होता है।
शंका- यहां द्वितीय क्षेत्रविकल्प कौनसी वृद्धि के द्वारा वृद्धिंगत हुआ है ?
समाधान-- वह असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत हुआ है । वह इस प्रकारसे-जघन्य अवगाहनाका नीचे विरलन करके उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक आकाशप्रदेश प्राप्त होता है। अब इतने मात्रसे अधिक उपरिम एक रूपधरित राशिकी चूंकि इच्छा है, अतः एक रूपसे अधिक अधस्तन
नमें यदि एक रूपकी हनि पायी जाती है तो उपरिम विरलन राशिमें वह कितनी पायी जावेगी. इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करके लब्धको समच्छेद करके उपरिम विरलनमेंसे घटा देनेपर अजघन्य जघन्य अवगाहनाका भागहार होता है ।
, अवरुवरि इगिपदेसे जदे असंखेजभागवहीए। आदी निरंतरमदो एगेगपदेसपरिवड्डी ॥ गो. जी. ९०१.
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