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छक्खंडागमे यणाखंड
[१, २, ६, १०. च । पमाणं पुण एइंदिया अणंता । सण्णिपंचिदियधुवट्टिदीदो हेट्ठिमाणं असण्णिपंचिंदियउक्कस्सहिदीदो उवरिमाणं संतट्ठाणाणं जीवसमुदाहारो कार्यु ण सक्किज्जदे, उवदेसाभावादो।
एवं छण्णं कम्माणं ॥१०॥
जहा णाणावरणीयस्स उक्कस्साणुक्कस्ससामित्तं परविदं तहा सेसछकम्माणं परूवेदव्वं । णवरि मोहणीयस्स उक्कस्सहिदी सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता । अणुक्कस्ससामित्ते भण्णमाणे सण्णिपंचिदियमिच्छाइटिप्पहुडि जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयो ताव सामिणो त्ति वत्तव्वं । णामा-गोदाणं उक्कस्सहिदी वीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता । एदेसिमणुक्कस्सविदिसामित्ते भण्णमाणे सणिपंचिंदियमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव चरिमसमयअजोगि त्ति वत्तव्वं । एवं वेयणीयस्स वि परूवणा कायव्वा । णवरि उक्कस्सहिदी तीसं सागरोवमकोडाकोडिमेत्ता ।
सामित्तेण उक्कस्सपदे आउअवेयणा कालदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥ ११ ॥
सुगमं ।
व संख्यातगुणी हीन हैं। प्रमाण- एकेन्द्रिय जीव अनन्त है । संशी पंचेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिसे नीचेके और असंही पंचेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिसे ऊपरके सत्त्वस्थानोंका जीवसमुदाहार करने के लिये शक्य नहीं है, क्योंकि, उसका उपदेश प्राप्त नहीं है।
ज्ञानावरणीयके समान ही शेष छह कोंके उत्कृष्ट स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥१०॥
जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्वामित्वकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष छह कर्मोकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्वामित्व. का कथन करते समय संशी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक तक स्वामी हैं, ऐसा कहना चाहिये। नाम व गोत्र कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके स्वामित्वका कथन करते समय संक्षी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती भयोगकवली तक स्वामी हैं ऐसा कहना चाहिये। इसी प्रकार वेदनीय कर्मकी भी प्ररूपणा कहना चाहिये। विशेष इतना है कि उसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है।
स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट पदमें आयुकर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ ११ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ आ-ताप्रयोः 'छणं कम्माणं' इति पाठः
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