Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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११.)
छक्खंडागमे वेयणाखंड तिहाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए विदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणबड्दिा जाव जवमझं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भाग गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सागरोवमसदपुधत्तं । सादस्स षिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए हिदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्विदा दुगुणवविदा जाव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सादस्स असादस्म य उक्कस्सिया हिदि ति । एयजीवदुगुणवाड हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणाजीवदुगुणवडि. हागिहाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स · असंखेज्जदिभागो । णाणाजीवदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयजीवदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । एवं परंपरावणिधा समत्ता ।
जहण्णढाणजीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? असंखेज्जगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जति । बिदियट्ठाणजीवपमाणण सव्वजीवा असंखेज्जगुणहाणिमेत्तेण कालेण अवहिरिज्जंति । एवं णेदव्वं जाव जवमझे ति । जवमज्झ. जीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? किंचूणतिण्णिगुणहाणिट्ठाणं
अधन्य स्थिति के जीवोंकी अपेक्षा उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर यवमध्य तक दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हैं। उसके आगे पल्योपम के असंख्यातवें भाग जाकर वे बुगुणी हानिको प्राप्त हैं । इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व तक वे दुगुणे हीन दुगुणे हीम हैं। सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव और असातावेदनीयके चतु:स्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी जीवोंकी अपेक्षा उनसे पस्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व सक वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं। इससे आगे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर वे दुगुणी हानिको प्राप्त हैं। इस प्रकार साता. व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति तक वे दुगुणे-दुगुणे हीन हैं। एकजीवदुगुणवृद्धिं-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल प्रमाण है। नानाजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। नानाजीवदुगुणवृद्धि हानिस्थानान्तर स्तोक हैं। एकजीवदुगुणवृद्धि हानि. स्थानानान्तर उनसे असंख्यातगुणा है। इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई।
जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे समस्त जीव कितने कालसे अपहत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे असंख्यात-गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहत होते हैं। द्वितीय स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे वे समस्त जीव असंख्यात गुणहानि मात्र कालसे अपहृत होते हैं । इस प्रकार यवमध्य तक ले जाना चाहिये । यवमध्यके जावोंके प्रमाणसे सब जीव कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? कुछ कम
१ प्रतिषु ' दुगुणवविदाए' इति पाठः।
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