Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
११६१
छक्खडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ६, १३.
उक्करसाबाधाए विणा उक्कस्सट्ठिदी ण होदि त्ति जाणावणङ्कं उक्कस्सियाए आबाहाए इदि भणिदं । बिदियादिसमएस आबाहा उक्कस्सिया ण होदित्ति पुव्वकोडित्तिभागमामाहं काऊण देव णेरइयाणं उक्कस्सा उअं बंधमाणपढमसमर चेव उक्कस्साउअवेयणा होद्रि त्ति भणिदं ।
तव्वदिरित्तमणुक कस्सा ॥ १३ ॥
-
तदो उक्कसादो वदिरित्तं तव्वदिरित्तं, सा अणुक्कस्सा | एसा अणुक्कस्सकालवेयणा असंखेज्जवियप्पा | तेण तिस्से सामित्तं पि असंखेज्जवियप्पं । तं जहा • पुव्वकोडित्तिभागमाबाई काऊ तेत्तीस सागरोत्रमाउअं जेण बद्धं सो उक्कस्सकालसामी । जेण समऊणं पबद्धं सो अणुक्कसकलसामी । जेण [ दुसमऊणं पबद्धं सो वि अणुक्कस्सकालसामी । जेण ] तिसमऊणं पबद्धं सो वि अणुक्कस्सकालसामी । एवमसंखेज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्साउडिदिं खंडिदूण तत्थ एगखंड परिहीणो त्ति । पुणो उक्कस्साउअं उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडपरिहीणे असंखज्जभागहाणीए परिसमत्ती संखेज्जभागहाणीए आदी च होदि । एवं संखज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव उक्कस्सा उअस्स अद्धं समऊणं परिहीणं ति ।
नहीं होती है, यह ज्ञापन करानेके लिये ' उक्कस्सियाए आबाहाए ' ऐसा कहा है । चूंकि द्वितीयादिक समयोंमें आबाधा उत्कृष्ट होती नहीं है, अतः पूर्वकोटिके तृतीय भागको आबाधा करके देवों व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको बांधनेवाले जीवके बन्धके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट आयुवेदना होती है, ऐसा कहा है ।
उससे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना होती है ॥ १३ ॥
उससे अर्थात् उत्कृष्टसे विपरीत आयु कर्म की वेदना कालकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना होती है । यह अनुत्कृष्ट कालवेदना असंख्यात भेद स्वरूप है । इसीलिये उसके स्वामी भी असंख्य प्रकार हैं। यथा- पूर्वकोटिके तृतीय भागको आबाधा करके तेतीस लागारोपम प्रमाण आयुको जिसने बांधा है वह कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनाका स्वामी है । जिसने एक समय कम उत्कृष्ट आयुको बांधा है वह अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है। जिसने [ दो समय कम उत्कृष्ट आयुको बांधा है वह भी अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है । जिसने ] तीन समय कम उत्कृष्ट आयुको बांधा है वह भी अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है। इस प्रकार असंख्यात भागहानि होकर तब तक जाती है जब तक जघन्य परीतासंख्यातसे उत्कृष्ट आयुस्थितिको खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण हानि नहीं हो जाती । पश्चात् उत्कृष्ट आयुको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण हानिके हो जानेपर असंख्या सभागहानिकी समाप्ति और संख्यात भागहानिका प्रारम्भ होता है । इस प्रकार संख्यातभागहानि होकर तब तक जाती है जब तक उत्कृष्ट आयुका एक समय कम अर्ध भाग हीन नहीं हो जाता ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org