Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ५, २४.]
वैयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं
[ ५३
एत्थ खेत्तट्ठाणसामिजीवपरूवणाए परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागं अप्पाबहुगमिदि छ अणिओ गद्दाराणि । एदेसिं छण्णमणिओगद्दाराणमुक्कस्साणुक्कस्सट्ठाणेसु जहा परूवणा कदा तहा कायव्वा ।
एवं सत्तणं कम्माणं ॥ २२ ॥
जहा णाणावरणीयस्स जहण्णाजहण्णक्खेत्तपरूवणा कदा तहा सत्तण्णं कम्माणं कायव्वं, विसेसाभावादो | एवं सामित्तपरूवणा सगंतो क्खित्तसंख ट्ठाण - जीवसमुदाहारा समत्ता ।
अप्पा हुए ति । तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणिजहणपदे उक्कस्सपदे जहष्णु कस्सपदे ॥ २३ ॥
एत्थ तिणि चेव अणिओगद्दाराणि त्ति संखाणियमो किमहं कीरदे ? ण एस दोसो, अण्णेसिमेत्थ अणिओगद्दाराणं संभवाभावादो ।
जहणपदे अट्टणं पि कम्माणं वेयणाओ तुल्लाओ ॥ २४ ॥
यहां क्षेत्रस्थानोंके स्वामिभूत जीवोंकी प्ररूपणा में प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, ये छह अनुयोगद्वार हैं। इन छह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा जैसे उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट क्षेत्रों में की गयी है वैसे ही यहां भी करना चाहिये |
इसी प्रकार शेष सात कर्मों के जघन्य व अजघन्य क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २२ ॥
जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके जघन्य व अजघन्य क्षेत्रोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मो के उक्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार अपने भीतर संख्या, स्थान और जीवसमुदाहारको रखनेवाली स्वामित्वप्ररूपणा समाप्त हुई ।
अल्पबहुत्व अधिकृत है । उसकी प्ररूपणा में ये तीन अनुयोगद्वरा हैं- जघन्य पदमें, उत्कृष्ट पदमें और जघन्योत्कृष्ट पदमें ॥ २३ ॥
शंका- यहां तीन ही अनुयोगद्वार हैं, ऐसा संख्याका नियम किसलिये किया जाता है ?
यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, और दूसरे अनुयोगद्वारोंकी यहां सम्भावना नहीं है ।
जघन्य पद में आठों ही कर्मोंकी वेदनायें समान हैं ॥ २४ ॥
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