Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, ५, ६, ९.] वेषणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त एवमेदेण कमेण समऊण-बिसमऊणादिकमेण णिरंतरट्ठाणाणि उप्पादेदव्याणि जाव समऊणाबाहकंदयब्भहियधुवहिदि त्ति । तिस्से पमाणं सट्ठी । ६० । एदम्हादो समऊण-बिसमऊणादिकमेण बंधाविय ओदारदव्वं जाव सव्वविसुद्धसण्णिपंचिंदियधुवहिदि ति । पुणो धुवट्टिदिं बंधमाणस्स अण्णो अपुणरुत्तहिदिवियप्पो होदि । एत्थ धुवद्विदिपमाणमेक्कत्तीस | ३१ ।
संपहि एदिस्से हेढा सण्णिपंचिंदिएसु हिदिबंधट्ठाणाणि लब्भंति । कुदो १ सय. विसुद्धेण सणिपंचिदियपज्जत्तेण बद्धजहण्णहिदीए जहण्णहिदिसंतसमाणाए धुवट्ठिदि त्ति गहणादो । तदो पंचिंदिएसु द्विदिबंधट्ठाणाणि एत्तियाणि चेव लब्भंति ।
___संपहि एदिस्से हेट्ठा बंधं मोत्तूण द्विदिसतं घादिय एइंदिसु द्विदिसंतहाणपरूवणं कस्सामो । एत्थ संदिट्टी०००
०००१०००१०००१०००१८००१०००१०००१०००१००० ०००
००१०००१०००१०००१००८१०००१०००१०००१००० ०१०००१०००१०००१०००१०००१८००१८००१००० १०००१०००१०००१०००१०००१०००१०००१०००
०००१०००१०००१०००१०००१०००१०००१००० धुवहिदि त्ति एक्कत्तीस | ३१|, एगढिदिखंडे त्ति संदिट्ठीए चत्तारि | ४|, उक्कीरणकालो चत्तारि ४ । एवं तृविय हिदिट्ठाणुप्पत्तिं भणिस्सामो । तं जहा
एगो तसजीवो समऊणुक्कीरणद्धाए अहियधुवहिदिसंतकम्मेण एइंदिएसु पविट्ठो।
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समय कम इत्यादि क्रमसे एक समय कम आबाधाकाण्डकसे अधिक ध्रुवस्थिति तक निरन्तर स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । उसका प्रमाण साठ (३०-१-२९,३.+२९-६०) है। इसमेंसे एक समय कम दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध कराकर सर्वविशुद्ध संझी पंचेन्द्रियकी ध्रुवस्थिति तक उतारना चाहिये । पश्चात् ध्रुवस्थितिको बांधनेवाले जीवका अन्य अपुनरुक्त स्थितिविकल्प होता है । यहां ध्रुवस्थितिका प्रमाण इकतीस (३१) है।
____ अब इसके नीचे स्थितिबन्धस्थान संशी पंचेन्द्रियों में पाये जाते हैं, क्योंकि, सर्वविशुद्ध संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके द्वारा बांधी गई जघन्य स्थितिसत्व समान जघन्य स्थितिको ध्रुवस्थिति रूपसे ग्रहण किया गया है। इसलिये पंचेन्द्रियों में स्थितिबन्धस्थान इतने ही पाये जाते हैं।
' अब इसके नीचे बन्धको छोड़कर स्थितिसत्त्वका घात करके एकेन्द्रियों में स्थितिसत्त्वस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। यहां संदृष्टि (मूल में देखिये)। संरष्टिमें ध्रुवस्थितिका प्रमाण ३१, एक स्थितिकाण्डकका प्रमाण ४, और उत्कीरणकालका प्रमाण ४ है । इस प्रकार स्थापित करके स्थितिस्थानोंकी उत्पत्तिको कहते हैं । यथा
एक प्रस जीव एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक ध्रुवस्थितिसत्त्वसे
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